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जैसे स्व-किरणों से सरोवर के जल को प्राकृष्ट करता है उसी प्रकार स्व-प्रताप से वे राजानों की लक्ष्मी को प्राकृष्ट करते थे । उनका गृहांगन राजानों द्वारा प्रदत्त हाथियों के मद-जल से सर्वदा पंकिल रहता । उन महाराज के चतुरतापूर्वक संक्रमणकारी अश्वों का वाहयाली की तरह सब दिशाओं में प्रवेश होता । अर्थात् उनके अश्व सरलता से सर्व दिशाओं में जा सकते थे । कारण, सब दिशाओं में रहने वाले उनके अधीन थे । समुद्र की तरंग को जिस प्रकार कोई नहीं गिन सकता उसी प्रकार उनके रथ और पैदल सैनिकों की गणना कोई नहीं कर सकता था । गजारोही अश्वारोही, रथी और पदातिक अपने भुजबल से सुशोभित उन महाराज के लिए केवल साधन मात्र ही तो थे । उनके पास इतना ऐश्वर्य होते हुए भी उन्हें जरा भी श्रभिमान नहीं था । अतुल भुजबल होते हुए भी. गर्व उन्हें स्पर्श भी नहीं कर पाया था । रूप सम्पन्न होने पर भी वे स्वयं को रूपवान नहीं समझते थे । विपुल लाभ भी उन्हें उन्मादी नहीं बना सका था । दूसरों को उन्मादी बनाने पर भी उनके मन में जरा भी घमण्ड नहीं था । वे इन सब चीजों को अनित्य मानते थे । अतः उन्हें तृणवत् समझते । इस प्रकार राज्य करते हुए अजितनाथ महाराज कुमारावस्था से प्रारम्भ कर तेपन लक्ष पूर्व समय सुखपूर्वक व्यतीत किया । ( श्लोक १०१-१२० ) एक बार सभा विसर्जन कर तीन ज्ञान के धारी अजितनाथ स्वामी एकान्त में बैठकर विचार करने लगे । आज तक मैंने भोगफल का भोग किया अब और गृह में रहकर स्वकार्य से विमुख होना उचित नहीं है । काररण, मुझे इस देश की रक्षा करनी होगी । इस नगर को देखना होगा, ग्राम बसाना होगा, मुझे इनका पालन करना होगा, हस्तियों की संख्या में अभिवृद्धि करनी होगी, अश्वों को देखना होगा, इन सेवकों का भरण-पोषण करना होगा, याचकों को सन्तुष्ट करना होगा, शरणागतों की रक्षा करनी पड़ेगी, पंडितों का सम्मान करना होगा, मित्रों का सत्कार करना होगा, मन्त्रियों के प्रति अनुग्रह दिखाना होगा, शत्रुनों का उद्धार करना होगा, स्त्रियों को प्रसन्न करना होगा, पुत्रों का लालन-पालन करना होगा - इस भाँति पर कार्य में लग्न होकर प्राणी मनुष्य जीवन व्यर्थ ही नष्ट करता है । ऐसे कार्यों में जो निरत रहता है वह युक्तश्चयुक्त का विचार नहीं करता । मूर्खतावश अनेक प्रकार के पाप
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