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अजित स्वामी का राज्याभिषेक किया। उनके राज्याभिषेक से समस्त पृथ्वी प्रसन्न हुई। विश्व की रक्षा करने में जो समर्थ हैं उनका नेतृत्व पाकर कौन आनन्दित नहीं होता? फिर अजित स्वामी ने सगर को युवराज पद पर अभिषिक्त किया। इससे अपने भाई के प्रति प्रीति सम्पन्न अजित स्वामी ऐसे लगने लगे मानो वहां उन्होंने स्वयं ही अन्य मूत्ति स्थापित की हो। (श्लोक ९४-९६)
अजितनाथ ने बड़ी धूमधाम से पिता का निष्क्रमणोत्सव मनाया। उन्होंने ऋषभ स्वामी के तीर्थ में वर्तमान स्थविर महाराज से मुक्ति की माता रूप दीक्षा ग्रहण की। बाह्य शत्रु की तरह अन्तर शत्रु को जीतने वाले उन राजर्षि ने राज्य की तरह ही व्रतों का पालन किया। अनुक्रम से केवलज्ञान उत्पन्न होने पर शैलेशी ध्यान में स्थित उन महात्मा ने प्रष्ट कर्मों को विनष्ट कर परमपद अर्थात् मोक्ष प्राप्त किया।
(श्लोक ९७-१००) ____इधर अजितनाथ स्वामी सर्वप्रकार की ऋद्धि सहित सहज भाव से सन्तान तुल्य पृथ्वी का पालन करने लगे। वे दण्डादि के बिना ही सबकी रक्षा करते थे। इससे जिस प्रकार उत्तम सारथी से चालित प्रश्व पथ पर सरल गति से चलता है उसी प्रकार प्रजा भी सन्मार्ग पर चलने लगी। प्रजा रूपी मयूरी के लिए मेघ तुल्य और उसका मनोरथ पूर्ण करने में कल्पवृक्ष तुल्य अजितनाथ महाराज के राज्य में चूर्ण शष्यादि के, बन्धन पशुओं के, वेध मणियों के, ताड़न वाद्य पर, सन्ताप स्वर्ण को, तप्त शस्त्र ही होते । इस प्रकार उत्खनन शालिधान्य का, वक्रता स्त्रियों की, भौहों में, मार शब्द का प्रयोग चूत क्रीड़ा में, विदारण शष्य क्षेत्र का, कैद पिंजड़े के पक्षियों को, निग्रह रोग का, जड़-दशा कमल की, दहन अगरु का, घर्षण चन्दन का एवं मन्थन दही का ही होता। पीसा भी इक्ष ही जाता था। मधुपान भ्रमर ही करता, मतवाला हाथी ही होता । कलह होता स्नेह प्राप्ति के लिए, भय निन्दा का, लोभ गुण का मौर प्रक्षमा दोष के लिए ही प्रयुक्त होती। अभिमानी राजगण भी स्वयं को सेवक समझकर अजितनाथ स्वामी की सेवा करते । कारण, अन्य सभी मणियां चिन्तामणि के सम्मुख दासी रूप में ही अवस्थित होती हैं। वे दण्ड नीति का प्रयोग नहीं करते । इतना ही नहीं वे कभी भ्र भी वक्र नहीं करते । इतना होने पर भी समस्त प्रजा भाग्यवान व्यक्ति की पत्नी की तरह उनके वशीभूत थी। सूर्य