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है और वंश-परम्परा है। हमारा भी अब यही मत है कि तुम दोनों इस राज्य के राजा और युवराज बनो और हमें प्रवजित होने की प्राज्ञा दो।
(श्लोक ७८-८२) अजितनाथ बोले-पिताजी, यह आपके योग्य ही है। भोग कर्म रूप विघ्न यदि नहीं होता तो मेरे लिए भी व्रत ग्रहण उचित था। विवेकी पुरुष किसी के भी व्रत ग्रहण करने में बाधक नहीं बनते तब समयानुसार कर्म करने वाले पूज्य पिताजी के लिए मैं कैसे बाधक बन सकता हूं? जो पुत्र भक्तिवश पिता के चतुर्थ पुरुषार्थ अर्थात् मोक्ष साधना में विघ्नकारी बनते हैं उन पुत्रों को पुत्र रूप में शत्रु उत्पन्न हुए हैं ऐसा मानना होगा। फिर भी मैं यह प्रार्थना करता हूं कि मेरे छोटे पिताजी (चाचा) सिंहासन पर बैठे। कारण, आपके ये विनयी अनुज हमसे भी अधिक हैं।
(श्लोक ८३-८६) यह सुनकर सुमित्र बोले-राज्य लेने के लिए मैं स्वामी का परित्याग नहीं करूंगा क्योंकि अल्प लाभ के लिए अधिक लाभ को कौन छोड़ता है ? विद्वान् राज्य, साम्राज्य, चक्रवर्तीत्व एवं देवत्व से भी गुरु-सेवा को अधिक मानते हैं।
(श्लोक ८७-८८) अजित कुमार बोले-पाप यदि राज्य नहीं लेना चाहते हैं तो हम लोगों के प्रेम के लिए भावयति बनकर घर में रहें।
(श्लोक ८९) - उसी समय राजा बोले-हे भाई, तुम पुत्रों का प्राग्रह सुनो। कारण, जो भाव से साधु है वही साधु होता है। फिर यह तो साक्षात् तीर्थङ्कर हैं, इसके तीर्थ में तुम्हारी इच्छा सफल होगी। अतः हे भाई, तुम इसके तीर्थङ्करत्व की प्रतीक्षा करो और यहीं रहो, शीघ्रता मत करो। एक पुत्र को तीर्थङ्कर और दूसरे को चक्रवर्ती पद प्राप्त होते देख सुख से भी अधिक सुख प्राप्त होगा।
(श्लोक ९०-९२) यद्यपि सुमित्र दीक्षा लेने को बहुत उत्सुक थे फिर भी अग्रज की बात उन्होंने स्वीकार कर ली। कारण, समुद्र मर्यादा की तरह गुरु-प्राज्ञा सत्पुरुषों के लिए अलंध्य है । अर्थात् जिस प्रकार समुद्र अपनी मर्यादा का परित्याग नहीं करता उसी प्रकार श्रेष्ठ पुरुष भी गुरुजनों की प्राज्ञा का लंघन नहीं करते।
(श्लोक ९३) प्रसन्नचित्त राजा जितशत्रु ने खूब धूमधामपूर्वक स्व हाथों से