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देवताओं द्वारा निर्मित विमान में बैठकर मेरुपर्वत पर प्रभु के निकट प्राए ।
(श्लोक ४०३-४११) इस प्रकार दक्षिण और उत्तर श्रेणी पर रहने वाले अरणपनिकादिक वारण व्यन्तरों के साठ-पाठ समूह के सोलह इन्द ने भी पिशाचादि इन्द्र की तरह आसन कम्पित होने से अवधिज्ञान से भगवान् का जन्म अवगत किया। उन्होंने भी अपने-अपने सेनापति को मंजुस्वर और मंजुघोष नामक घण्टे बजाने को कहा और प्रभु के जन्म की घोषणा की। फिर वे आभियोगिक देवों द्वारा निर्मित विमान में बैठकर अपने अपने व्यन्तर देव और पूर्ववत परिवार सहित मेरुपर्वत पर प्रभु के निकट पाए। (श्लोक ४१२-४१६) ___असंख्य चन्द्र-सूर्य भी अपने-अपने परिवार सहित जिस प्रकार पुत्र पिता के पास आते हैं उसी प्रकार प्रभु के निकट पाए । समस्त स्वतन्त्र इन्द्र भक्ति के कारण परतन्त्र की तरह प्रभु का जन्मोत्सव करने के लिए मेरुपर्वत पर पाए।
(श्लोक ४१७) उस समय ग्यारह और बारहवें देवलोक के अच्युत नामक इन्द्र ने स्नान कराने का द्रव्य लाने के लिए पाभियोगिक देवताओं को प्रादेश दिया। वे ईशान दिशा की ओर जाकर ऊँचे प्रकार का वैक्रिय समुद्घात कर सोने का, चांदी का, रत्न का, सोना और चांदी का, सोना और रत्न का, चांदी और रत्न का, सोना-चांदी पौर रत्न का, और मिट्टी के प्रत्येक प्रकार के १००८ (अर्थात् समस्त प्रकार के २०६४) कलश तैयार किए। साथ ही इतनी ही संख्या में झारियां, दर्पण, छोटी-छोटी कटोरियां, डिब्बे, रत्न करण्डिका औरः फूलदानियां उसी समय तैयार की। ऐसा लगा मानो ये सभी वस्तुएं भण्डार में रखी हुई थीं। केवल बाहर निकालना पड़ा है। वे स्फूर्ति भरे देव कलशों को लिए इस प्रकार क्षीर समुद्र गए जिस प्रकार रमरिणयां जल भर कर लाने के लिए सरोवर तट पर जाती हैं। मानो वे मंगल शब्द कर रहे हों इस प्रकार के बुद-बुद शब्दकारी कलशों को क्षीरोदक से पूर्ण किया। उन लोगों ने पुण्डरीक, पद्म, कुमुद, उत्पल, सहस्रपत्र, शतपत्र जाति के कमल भी तोड़े। वहां से वे पुष्करवर समुद्र भी गए। यात्रीगण जिस भांति द्वीपों से द्रव्य संग्रह करते हैं उसी प्रकार उन्होंने वहां से नील कमलादि ग्रहण किए। भरत व ऐरावत क्षेत्र के मगधादि तीर्थों के जल भी उन्होंने लिए । संतप्त पथिक की तरह गंगादि नदी और