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श्रेणी में रहने वाले देवलोक के अधीश्वर यथाक्रम से धरणेन्द्र, हरि, वसुदेव, प्रग्निशिख, वेलम्ब, सुघोष, जलकान्त, पूर्ण और श्रमित नामक इन्द्र और उत्तर श्रेणी के भूतानन्द, हरिशिख, वेणुधारी, अग्निमानव, प्रभंजन, महाघोष, जलप्रभ, अवशिष्ट और अमितवाहन इन्द्र का श्रासन कम्पित होने से प्रवधिज्ञान द्वारा वे अर्हत् के जन्म से अवगत हुए । धरणेन्द्रादि का घण्टा भद्रसेन नामक सेनापति और भूतानन्दादि का घण्टा दक्ष नामक सेनापति ने बजवाया। इससे उभय श्रेणी के मेघस्वर, क्रौञ्चस्वर, हंसस्वर, मंजुस्वर, नन्दीस्वर, नन्दीघोष, सुस्वर, मधुस्वर और मंजुघोष नामक घण्टे बज उठे । घण्टे की आवाज सुनकर उस भुवनपति के उभयश्रेणी के देवता इस प्रकार अपने-अपने इन्द्र के पास आए जिस प्रकार अश्व अपनेअपने स्थान को चले जाते हैं । इन्द्र की प्राज्ञा से उनके ग्राभियोगिक देवगरण रत्न और स्वर्ण के विचित्र और पांच सौ हजार योजन विस्तारयुक्त विमान और प्रढ़ाई सौ योजन ऊँचा इन्द्रध्वज तैयार किया । प्रत्येक इन्द्र की छह महिषियां छह हजार सामानिक देवता इसके चार गुणा (२४००० ) अंगरक्षक देवता श्रीर चमरेन्द्र की तरह अन्य त्रास्त्रिशादि देवता सहित निज-निज विमान में बैठकर मेरुपर्वत पर प्रभु के निकट आए। ( श्लोक ३९१-४०२ )
पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंम्पुरुष, महोरग श्रीर गन्धर्व के अधिपति काल, स्वरूप, पूर्णभद्र, भीम, सत्पुरुष, प्रतिकाय और गीतरति नामक दक्षिण श्रेणी पर निवान करने वाले व महाकाल, प्रतिरूप, मरिणभद्र, महाभीम, किम्पुरुष, महापुरुष, महाकाय व गीतवशा नामक उत्तर श्रेणी में निवास करने वाले इस प्रकार उभयश्रेणी के अधिपति स्व श्रासन कम्पित होने से प्रभु जन्म से अवगत हुए। दोनों ही ने अपने प्रपने सेनापति द्वारा मंजुस्वरा • मंजुघोष नामक घण्टा बजवाया । घण्टे का शब्द बन्द होने पर सेनापतियों ने प्रभु के जन्म की घोषणा की। इससे पिशाच आदि व्यन्तर देवगरणों का समूह अपने-अपने इन्दु के निकट आया । उस इन्दू के निकट त्रास्त्रिश और लोकपाल नामक देव नहीं थे । कारण, उनके निकट सूर्य चन्द्र की तरह त्रायस्त्रश और लोकपाल देवता नहीं रहते । प्रत्येक इन्द्र अपने चार चार हजार सामानिक देवता भौर सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवता सहित श्राभियोगिक