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पूर्व में प्राचार्यं शोलांक ने 'चउप्पन - महापुरुष - चरियं' नाम से इन 63 महापुरुषों के जीवन का प्राकृत भाषा में प्रणयन किया था । शीलांक ने 9 प्रतिवासुदेवों की गणना स्वतन्त्र रूप से नहीं की, अत: 63 के स्थान पर 51 महापुरुषों को जीवनगाथा हो उसमें सम्मिलित थी ।
आचार्य हेमचन्द्र 12वीं शताब्दो के एक अनुपमेय सारस्वत पुत्र थे, कहें तो प्रत्युक्ति न होगी । इनकी लेखिनी से साहित्य की कोई भी विद्या अछूती नहीं रही । व्याकरण, काव्य, कोष, अलंकार, छन्द - शास्त्र, न्याय, दर्शन, योग, स्तोत्र आदि प्रत्येक विधा पर अपनी स्वतन्त्र, मौलिक एवं चिन्तनपूर्ण लेखनी का सफल प्रयोग इन्होंने किया । आचार्य हेमचन्द्र न केवल साहित्यकार ही थे; अपितु जैनधर्म के एक दिग्गज आचार्य भी थे । महावीर की वाणी के प्रचार-प्रसार में अहिंसा का सर्वत्र व्यापक सकारात्मक प्रयोग हो इस दृष्टि से वे चालुक्यवंशीय राजाओं के सम्पर्क में भी सजगता से आए और सिद्धराज जयसिह तथा परमार्हत् कुमारपाल जैसे राजऋषियों को प्रभावित किया और सर्वधर्मसमन्वय तथा विशाल राज्य में अहिंसा का अमारी पटह के रूप में उद्घोष भी करवाया । जैन परम्परा के होते हुए भी उन्होंने महादेव को जिन के रूप में
लेखित कर उनकी भी स्तवना की । हेमचन्द्र न केवल सार्वदेशीय विद्वान् ही थे; अपितु उन्होंने गुर्जर धरा में हिंसा, करुणा, प्रेम, के साथ गुर्जर भाषा को जो अनुपम अस्मिता प्रदान को यह उनकी उपलब्धियों की पराकाष्ठा थी ।
महापुरुषों के जीवनचरित को पौराणिक आख्यान कह सकते हैं । पौराणिक होते हुए भी प्राचार्य ने इस चरित-काव्य को साहित्य शास्त्र के नियमानुसार महाकाव्य के रूप में सम्पादित करने का भूतपूर्व प्रयोग किया है और इसमें वे पूर्णतया सफल भी हुए हैं । यह ग्रन्थ छत्तीस हजार श्लोक परिमाण का है । इस ग्रन्थ की रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए हेमचन्द्र स्वयं ग्रन्थ की प्रशस्ति में लिखते हैं
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'चेदि, दशार्ण, मालव, महाराष्ट्र, सिन्ध और अन्य अनेक दुर्गम देशों को अपने भुजबल से पराजित करने वाले परमार्हत्
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