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फिर पूर्व की भांति उन्हें लिए उत्तर दिशा के कदलीगृह के प्रायीं । वहां भी उन लोगों ने उन्हें चतुःशाल के सिंहासन पर बैठाया । उस समय वे दोनों पर्वत शिखर पर अवस्थित सिंहनी और उसके शावक-सी शोभित हो रही थीं। वहां दिक्कुमारियों ने प्राभियोगिक देवों द्वारा क्षरणमात्र में क्षुद्र हिमालय से गोशीर्ष चन्दन की लकड़ियां मँगवायीं । फिर अरणिकाष्ठ को घिसकर अग्नि उत्पन्न की । चन्दन के काष्ठ को घिसने से भी अग्नि उत्पन्न होती है । चारों ओर से गोशीर्ष चन्दन के समिध से उन देवियों ने अग्निहोत्र की तरह उस अग्नि को प्रज्वलित किया । उस अग्नि में होमकर भूतिकर्म (जन्म संस्कार ) क्रिया । भक्ति से उन्नत उन देवियों ने जिनेन्द्र के रक्षा बन्धन बांधा और उनके कानों में 'तुम पर्वत की तरह प्रायु सम्पन्न होप्रो' कहकर परस्पर रत्न पाषाण के दो गोलक टकराए । फिर प्रभु को हाथों एवं उनकी मां को बाहुओं द्वारा उठाकर सूतिकागृह ले गयीं और वहां उनकी शय्या पर सुला दिया । फिर कुछ दूर खड़ी होकर प्रभु और उनकी माता का उज्ज्वल गुरणगान सुस्वर से करने लगीं । ( श्लोक २२२-२४३) सौधर्म देवलोक में शकेन्द्र स्व सिंहासन पर बैठे थे । वे बड़े वैभवशाली थे । एक कोटि देवता एवं एक कोटि अप्सराएँ उनकी सेवा कर रही थीं । एक कोटि चारण उनकी स्तुति कर रहे थे । गन्धर्वगरण विभिन्न प्रकार से उनका गुणगान कर रहे थे । वारांगनाएँ उनके दोनों तरफ खड़ी होकर उन पर चँवर वींज रही थीं । मस्तक स्थित श्वेत छत्र से वे सुशोभित हो रहे थे । सुधर्मा सभा में उनका जो सुखकारी सिंहासन था वह उस समय कम्पित हुआ । सिंहासन के कम्पित होते ही वे क्रोध से प्रज्वलित हो उठे । उनके होठ काँपने लगे । ऐसा लगा मानो उनका सारा शरीर अग्नि की भांति ज्वालामय हो गया है । अपनी चढ़ी हुई भृकुटि के कारण वे धूमकेतु युक्त श्राकाश की तरह भयंकर लगने लगे । मदमस्त हस्ती की तरह उनका मुख ताम्रवर्णीय हो गया एवं उछलती हुई तरंगों की तरह उनके ललाट पर त्रिवली हो गयी। इसी स्थिति में उन्होंने अपने शत्रुनाशक वज्र की प्रोर देखा । ( श्लोक २४४ - २५० ) उन्हें इस प्रकार कुपित देखकर नैगमेषी नामक सेनापति उठ कर खड़े हो गए और हाथ जोड़कर कहने लगे - हे स्वामी, आपके प्राज्ञावाहक मेरे रहते आपका आवेश किस पर है ? सुर-वसुर चौर
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