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उन्होंने भी विमान सहित प्रदक्षिणा दी और विमान को यथायोग्य स्थान पर रख दिया। फिर पैदल चलकर जन्मगृह के निकट आयीं एवं भगवान् और भगवान् की माता को प्रदक्षिणा देकर एवं प्रणाम कर कहने लगीं-विश्व को आनन्द प्रदान करने वाली हे जगन्माता, आपकी जय हो। आप चिरंजीवी होएं। आपके दर्शन से आज हमारा उत्तम मुहर्त उपस्थित हुआ है। रत्नाकर, रत्नशैल और रत्नगर्भा इन सब नामों को धारण करने वाले निरर्थक हैं। रत्नभूमि तो एक मात्र आप ही हैं। क्योंकि आपने ही तो रत्न से भी श्रेष्ठ इस पुत्र रत्न को जन्म दिया है । हम रुचक द्वीप के मध्य भाग में रहने वाली दिककुमारियाँ अर्हत् जन्म के कृत्यों को करने के लिए यहां पायी हैं। अतः आप हमें देखकर जरा भी भयभीत न होवें।
__(श्लोक २१५-२२२) ऐसा कहकर उन्होंने प्रभु की नाभिनालिका चार अंगुल रखकर बाकी काट दी। फिर उस काटी हुई नालिका को जमीन में गड्ढा खोदकर निधि की तरह रख दी एवं रत्नों और हीरों से गड्ढे को भर दिया। तत्काल उप्पन्न दुर्वादल से उस गड्ढे पर पीठिका निर्मित की। देवताओं के प्रभाव से वहाँ तत्काल उद्यान की रचना हो गयी। तदुपरान्त उन्होंने सूतिकागृह के तीन ओर क्षणमात्र में लक्ष्मी के गृहरूप से तीन कदलीगृह का निर्माण किया। उनमें प्रत्येक के मध्य भाग में चतुःशाल बनायी गयी। जिसपर एक-एक बड़े रत्न सिंहासन रखे गए। फिर वही दिक्कुमारियाँ प्रभु को हाथों में एवं प्रभुमाता को बाहुओं पर लेकर दक्षिणी कदलीगृह में आयीं। वहाँ चतुःशाल पर रक्षित रत्नसिंहासन पर स्वामी और उनकी माता को सुखपूर्वक बैठाया और स्वयं शतपाकादि तेल द्वारा दोनों की धीरे-धीरे मालिश की । सुगन्धित द्रव्य और मिट्टी उबटन से क्षणमात्र में रत्न दर्पण की तरह उन दोनों की देह को मैल रहित कर दिया। फिर वे उन्हें पूर्व की भाँति पूर्व दिशा के कदली गह में ले गयीं। वहाँ चतुःशाल पर अवस्थित रत्न सिंहासन पर प्रभु और उनकी माता को सुखपूर्वक बैठाकर गन्धोदक पुष्पोदक और शुद्धोदक से मानो जन्म से ही वे इन कामों को करती आ रही हों इस प्रकार उन्हें स्नान करवाया। बहुत 'दिनों पश्चात् उनकी शक्ति का यथायोग्य व्यवहार हुआ । इससे वे स्वयं को कृतार्थ करती हुई उन्हें रत्नों के विचित्र अलंकार पहनाए ।