________________
28]
इससे उनका दारिद्रय आजीवन के लिए समाप्त हो गया । कल्पवृक्ष की तरह वस्त्राभूषणों से सुशोभित होकर वे अपने-अपने घर लौट गए। गंगा और सिन्धु जिस प्रकार गगा में मिल जाती है उसी प्रकार विजया और वैजयन्ती भी प्रानन्दमना अपने-अपने प्रासाद को लौट गयीं।
(श्लोक १०६-१०८) फिर इन्द्र की आज्ञा से देव(वैमानिक) और असुर (भुवन पति देवता) पत्नियां विजया देवी की सेवा करने लगीं। वायु कुमार देवताओं की पत्नियां प्राकर उनके कक्ष के धूल-तृण-काष्ठादि दूर करने लगीं। मेघ कुमार देवों की पत्नियाँ दासियों की तरह उनके गृहांगन की घरती को गन्धोदक से सिंचित करने लगीं। छह ऋतुओं की अधिष्ठाता देवियाँ मानो गर्भस्थ प्रभु को अर्घ देने को प्रस्तुत हो रही हों इस प्रकार सर्वदा पंचवर्णीय पुष्षों की वर्षा करने लगीं। महादेवी के भावज्ञाता ज्योतिष्क देवियाँ समय के अनुकल और सुखकर आलोक देने लगीं। वन देवियां दासी की तरह तोरणों की रचना करने लगी और अन्य देवियाँ चारण भाटों की स्त्रियों की तरह विजया देवी की स्तुति करने लगीं। इस प्रकार सभी देवियाँ अपने अधिदेवता (रक्षक) की तरह विजया देवी की अधिकाधिक सेवा करने लगीं। मेघघटा जैसे सूर्य बिम्ब को और पृथ्वी जैसे निधान (धन-रत्न) को धारण करती हैं इसी प्रकार विजया देवी और वैजयन्ती देवी भी गर्भ धारण करने लगीं। जलपूर्ण बावड़ी जैसे मध्य में खिले स्वर्ण कमलों से अधिक शोभान्वित होने लगती है, उसी प्रकार स्वभावतः सुन्दर वे देवियाँ गर्भ धारण कर अधिक शोभान्वित होने लगीं। स्वर्ण कान्ति-से उनके गौरवर्ण मुख कमल छिदे हुए हस्ती-दन्तों-सी कान्ति की तरह ईषत् पिंगल वर्ण हो गए। स्वभावतः आकर्ण विस्तृत उनके नेत्र शरत्कालीन कमल की भांति और विकसित हो गए। सद्य धोई उज्ज्वल सुवर्णशलाका की तरह उनका सौन्दर्य और अधिक प्रस्फुटित हो गया। सर्वदा मन्थरगति सम्पन्ना वे देवियाँ अलस राजहंसिनी की तरह और धीरे-धीरे चलने लगीं ! दोनों के सुखदायक गर्भ नदी में उद्गत कमल-नाल की तरह और शुक्ति में उत्पन्न मोती की तरह अति गूढ़ भाव से बढ़ने लगे।
(श्लोक १०९-१२२) इस प्रकार नौ मास और साढ़े तीन दिन व्यतीत होने पर माघ शुक्ला अष्टमी के दिन शुभ मुहुर्त में जब समस्त ग्रह उच्च