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धारण करने से वे चैत्रपूर्व के सुगन्धित; किन्तु अल्प पुष्पयुक्त वृक्ष की तरह सुशोभित हो रहे थे । वे राजा के निकट प्राकर राजा और युवराज को भिन्न-भिन्न और एक साथ प्रार्य वेदोक्त मन्त्रों से आशीर्वाद दिया और राजा पर कल्याणकारी दूर्वा अक्षतादि इस प्रकार निक्षेप किए जैसे उद्यान में पवन पुष्पों को भार देती है । फिर वे प्रतिहारियों द्वारा प्रदर्शित आसनों पर इस प्रकार बैठ गए जैसे हंस कमलिनी - पत्र पर बैठता है । राजा ने अपनी रानी और भ्रातृ-वधू को यवनिका के अन्तराल में इस भांति बैठाया जैसे मेघों के पीछे चन्द्रलेखा रहती है । फिर मानो साक्षात् स्वप्न फल हों ऐसे पुष्प और फल प्रञ्जलि में लेकर रानी और भ्रातृ-वधू के उन स्वप्नों को नैमित्तिकों से कहा । उन लोगों ने वहीं एकान्त में विचार-विमर्श कर शास्त्रानुसार स्वप्नों का अभिप्राय इस प्रकार
बताया :
'हे देव, स्वप्नशास्त्र में बहत्तर प्रकार के स्वप्नों के विषय में कहा गया है । उसमें भी ज्योतिष्क देवताओं के मध्य ग्रहों की तरह तीस स्वप्न उत्कृष्ट कहे गए हैं । उन तीस स्वप्नों में भी इन चौदह स्वप्नों को निमित्त शास्त्र में चतुर विद्वान् महास्वप्न कहते हैं । जब तीर्थङ्कर या चक्रवर्ती गर्भ में आते हैं तब उनकी माताएँ रात्रि के चतुर्थ याम में ये स्वप्न देखती हैं । इनमें सात स्वप्न वासुदेव की माँ, चार स्वप्न बलभद्र की माँ और एक स्वप्न मण्डलेश्वर की माँ देखती हैं । एक साथ दो तीर्थङ्कर दो चक्रवर्ती पुत्र नहीं होते । इसलिए एक माँ के पुत्र तीर्थङ्कर और एक माँ के पुत्र चक्रवर्ती होंगे । ऋषभदेव के समय चक्रवर्ती भरत हुए थे और अजितनाथ के समय सुमित्रविजय के पुत्र सगर राज- चक्रवर्ती होंगे । राजा जितशत्रु के पुत्र द्वितीय तीर्थङ्कर होंगे । उनका नाम अजितनाथ होगा । यह बात हमने प्रर्हत् आगमों से अवगत की है । इससे विजया देवी के पुत्र तीर्थङ्कर और वैजयन्ती देवी के पुत्र अधिपति चक्रवर्ती होंगे ।'
छह खण्ड भरत के
( श्लोक ८६ - १०४)
स्वप्नों के ये फल सुनकर राजा श्रानन्दित हुए और उन्होंने नैमित्तिकों को ग्राम, नगर, अलङ्कार श्रौर वस्त्र उपहार में दिए ।
( श्लोक १०५ )
महापुरुष गर्भवास में भी लोगों के लिए उपकारी होते हैं । कारण, स्वप्न शास्त्र के ज्ञातानों ने महापुरुषों के जन्म होने की बात कही ।