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स्थान में अवस्थित थे तब रोहिणी नक्षत्र में सत्य और प्रियवाणी जिस प्रकार पुण्य को जन्म देती है उसी प्रकार विजया देवी ने राज लक्षणयुक्त एक पुत्र को जन्म दिया । देवी या पुत्र को प्रसव सम्बन्धी कोई कष्ट नहीं हुआ। कारण, तीर्थंकरों का यह स्वाभाविक प्रभाव है। उस समय असमय में उद्भूत मेघहीन विद्युत् की तरह एक प्रकाश क्षणमात्र के लिए तीन लोक में परिव्याप्त हो गया । शरद् ऋतु में पथिकों को जिस प्रकार मेघ छाया से सुख प्राप्त होता है उसी प्रकार का सुख क्षणमात्र के लिए नारकीयों को भी प्राप्त हुप्रा । शरत्कालीन वारि की तरह समस्त दिशाओं में प्रसन्नता व्याप्त हो गयी और प्रभातकालीन कमल की तरह समस्त लोकों का मन विकसित हो उठा। पृथ्वी पर प्रसारित दक्षिरण पवन जिस भाँति भूतल से उत्पन्न होता है उसी प्रकार अनुकल और मन्द-मन्द पवन प्रवाहित होने लगा। चारों ओर शुभ-सूचक शकुन होने लगे। कारण महात्माओं के जन्म से सब कुछ अच्छा ही होता है।
(श्लोक १२३-१३०) उसी समय प्रभु के निकट जाने की इच्छा से मानो उत्सुक हो गई हों ऐसी दिक् कुमारियों का आसन कम्पित हुा । सुन्दर मुकुटमणियों की कान्ति के बहाने मानों कुसुम्भी वस्त्र के प्रावरण का परिधान पहन रखा हो ऐसे मुकुटों से वे शोभित थीं। स्व-प्रभाव से जैसे परिपूर्ण रूप में पूर्ण हो गए हैं ऐसे मुक्ता कुण्डल वे पहने थीं। कुण्डलाकार होने से इन्द्र धनुष की शोभा का अनुसरण करने वाली और विचित्र मरिण रचित कण्ठाभरण उन्होंने धारण कर रखा था। रत्नगिरि के शिखर से गिरती निरिणी की शोभा को हरने वाले स्तनस्थित मुक्ताहारों से वे मनोहर लग रही थीं। कामदेव द्वारा न्यस्त मानों सुन्दर तूणीर हों ऐसे माणिक्य कंकरणों से उनकी भुजवल्लियाँ सुशोभित थीं। जगत को जीतने की इच्छा रखने वाले कामदेव के लिए मानो धनुष प्रस्तुत किया हो ऐसी अमूल्य रत्नों की कटि-मेखला उन्होंने धारण कर रखी थी। उनकी देह द्युति से पराजित समस्त देवताओं की द्य ति मानो उनके चरण कमलों में आकर गिर गई हों ऐसे रत्ननुपूरों से वे शोभित हो रही थीं। उनकी देह-कान्ति किसी प्रियंगु की तरह श्याम थी। कोई तरुण सूर्य की भांति अपनी कान्ति प्रसारित कर रही थी। कोई चन्द्रिका. सी स्व-कान्ति से निज प्रात्मा को स्नान करा रही थी। कोई