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20] (१९) सत्कार परिषह-मुनि के आगमन पर उठकर खड़ा होना, मुनि का सम्मान पूजादि करना या दान देना रूप सत्कार पाने की उनकी जरा भी इच्छा नहीं होती। सत्कार मिलने पर आनन्दित नहीं होते । न मिलने पर दु:खी नहीं होते । (२०) प्रज्ञा परिषह-वे ज्ञानी का ज्ञान और अपना प्रज्ञान देख कर भी दुःखी नहीं होते। (२१) अज्ञान परिषह-ज्ञान और चारित्रयुक्त होने पर भी मैं अभी तक छद्मस्थ हूं इसी भावना से उत्पन्न दुःख को भी वे यही सोच कर सहन करते कि ज्ञान की प्राप्ति धीरे-धीरे ही होती है । (२२) सम्यक्त्व परिषह-जिनेश्वर, उनके कथित शास्त्र, जीव, धर्म, अधर्म और भवान्तर ये सब परोक्ष हैं फिर भी वे सम्यक्त्व सम्पन्न मुनि उन्हें मिथ्या नहीं मानते। इस प्रकार मन, वचन और काया को वश में रखने वाले मुनि स्व में उत्पन्न या अन्य द्वारा कृत शारीरिक और मानसिक समस्त प्रकार के परिषहों को सहन करते ।
(श्लोक २७६.२९८) अर्हत भगवान् के ध्यान में सर्वदा लीन होकर मुनि ने चित्त को चैत्य की तरह स्थिर कर लिया। सिद्ध, गुरु, बहुश्रुत, स्थविर, तपस्वी, श्रुतज्ञान और संघ पर उनकी भक्ति थी। इसलिए इन सब स्थानकों की और अन्य तीर्थङ्कर नाम कर्म उपार्जनकारी स्थानकों की जिनकी आराधना महान् प्रात्मानों के सिवाय अन्य के लिए दुर्लभ है, उन्होंने आराधना की और एकावली, कनकावली, रत्नावली, ज्येष्ठ व कनिष्ठ सिंहनिष्क्रीडित आदि उत्तम तप किए। कर्म निर्जरा के लिए उन्होंने मास क्षमण उपवास से प्रारम्भ करते हुए आठ-पाठ मास तक उपवास किए। समताधारी महात्मा ने इस प्रकार महान् तपस्या कर अन्त में दो प्रकार की सल्लेखना और अनशन कर तत्परता सहित पंच परमेष्ठियों को स्मरण करते हुए देह का इस प्रकार परित्याग कर दिया जिस प्रकार पथिक विश्रामस्थान का परित्याग कर देता है।
(श्लोक २९९-३०५) द्वितीय भव वहाँ से उनका जीव विजय नामक अनुत्तर विमान में तैंतीस सागरोपम की आयु सम्पन्न देव रूप में उत्पन्न हुप्रा । उस विमान में देवताओं के शरीर एक हाथ परिमित प्रौर चन्द्र कौमुदी की तरह कान्ति सम्पन्न होते हैं। अहङ्कार रहित सुन्दर अलङ्कार भूषित