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होते । वे उठते बैठते, चलते सर्वदा सन्तुष्ट ही रहते । ( ८ ) स्त्री परिषह - जिनकी संगति रूप कर्दम कभी परिष्कृत नहीं होता श्रीर जो मोक्ष रूपी द्वार के लिए अर्गला के समान है ऐसी स्त्रियों को वे कभी मन में भी नहीं लाते । कारण उन्हें याद करना भी धर्मनाश का कारण होता है । (९) चर्या परिषह - ग्रामादि में वे नियमित रूप से कभी नहीं रहते । इससे स्थान सम्बन्ध वर्जित वे मुनि दो प्रकार के अभिग्रह सहित अकेले विचरण करते । (१०) निषद्या परिषह - स्त्री रूपी कण्टक रहित आसनादि पर उपवेशनकारी वे इष्ट और अनिष्ट उपसर्ग में निःस्पृह और निर्भय रह कर दोनों को सहन करते । (११) शय्या परिषह - इस संथारे ( बिछौना) को सुबह ही छोड़ देना होगा ऐसा सोचकर वे मुनि अच्छे बुरे संथारे में सुख-दु:ख न मानकर राग-द्व ेष का परित्याग कर सोते थे । (१२) श्राक्रोश परिषह - अपनी क्षमा श्रमरणता के परिज्ञाता वे क्रोधावेश में भला-बुरा कहने वाले पर भी क्रोधित नहीं होते बल्कि उसे अपना उपकारी मानते । (१३) वध बन्धन परिषह - कोई उन्हें मारता या बाँधता फिर भी जीव हत्या न करने के कारण, क्रोध की दुष्टता ज्ञाता, क्षमावान और गुणग्राही होने के कारण वे किसी पर हाथ नहीं उठाते (मारते नहीं) । ( १४) याचना परिषह - दूसरों द्वारा प्रदत्त आहार पर जीवन निर्वाहकारी यतियों को यदि याचना करने पर भी कुछ नहीं मिले तो क्रोध करना उचित नहीं ऐसा समझ कर न वे याचना दुःख की परवाह करते, न गृहस्थाश्रम में लौट जाने की इच्छा करते । (१५) अलाभ परिषह - वे स्वयं के लिए या अन्य के लिए कभी अन्नादि पदार्थ पाते कभी नहीं पाते; किन्तु वे पाने पर प्रसन्न नहीं होते, नहीं मिलने पर अन्य की निन्दा नहीं करते । (१६) रोग परिषह - रोग होने पर वे व्याकुल नहीं होते, चिकित्सा करवाने की भी इच्छा नहीं रखते । शरीर को श्रात्मा से पृथक समझ कर अदीन भाव से रोग के दुःख को सहन करते; (१७) तृण - स्पर्श परिषह - स्वल्प और पतले वस्त्र बिछाने के कारण तृणादि से देह विद्ध होती । वे उस दुःख को सहन करते किन्तु कभी भी मोटे या नरम वस्त्र की इच्छा नहीं करते । (१८) मल परिषह — गर्मी के दिनों में धूप की ताप से शरीर मैले पसीने से भींग जाता फिर भी वे स्नान करने की इच्छा नहीं करते श्रीर न ही उबटन आदि के प्रयोग से उसे दूर करने की इच्छा करते ।