________________
18]
1
तीन गुप्ति : (१) मनोगुप्ति - कल्पना जाल से मुक्त और समभावों में अवस्थित वे मुनि मन को गुरण रूपी वृक्ष युक्त उद्यान में आत्माराम अर्थात् अध्यात्म ध्यान में नियुक्त रखते थे । (२) वचन गुप्ति - वे प्रायः मौन ही रहते, इशारे से भी बात नहीं करते । यदि किसी कृपायोग्य पुरुष के प्राग्रह पर कुछ बोलते भी तो मित वाक्य ही बोलते । (३) काय गुप्ति-वे जब कायोत्सर्ग ध्यान में अवस्थित होते तब महिषादि पशु गला या देह खुजलाने के लिए उनके शरीर को स्तम्भ समझकर अपनी देह रगड़ते तब भी वे कायोत्सर्ग में अवस्थित रहते । प्रासन बिछाते, उठाते और विहार करने के स्थान पर भी चेष्टा रहित होकर नियम का पालन करते ।
( श्लोक २७१ - २७४ ) इस भाँति वे महामुनि चारित्र रूपी देह उत्पन्न करते, उसकी रक्षा करते और शोधन करते, माता-सी पाँच समितियों और तीन गुप्तियों रूपी प्रवचन माता को धारण करते । ( श्लोक २७५ ) परिषह : (१) क्षुधा परिषह क्षुधा पीड़ित होने पर भी, शक्तिवान होते हुए भी एषरणा का लंघन न कर श्रदीन एवं व्याकुल हुए बिना वे विद्वान मुनि संयम यात्रा के लिए उद्यम कर विचरण करते । (२) तृष्णा परिषह - राह में चलते समय प्यास लगने पर भी वे तत्त्ववेत्ता मुनि दीन बनकर कच्चे जल की इच्छा न कर प्रासुक जल पान की ही इच्छा रखते । ( ३ ) शीत परिषह - शीत पीड़ित होने पर भी शरीर त्वचारक्षण से विरत वे महात्मा जो ग्रहणीय नहीं होता ऐसा वस्त्र ग्रहण नहीं करते । श्रग्नि प्रज्वलित नहीं करते । प्रज्वलित अग्नि से शरीर को तप्त नहीं करते । ( ४ ) उष्ण परिषह - उष्णकाल में धूप से तप्त होने पर भी वे मुनि न धूप की निन्दा करते, न छाया को स्मरण करते । वे पंखे का व्यवहार कभी नहीं करते । न स्नान करते न चन्दनादि विलेपन करते । (५) दंशमशक परिषह - दंश-मशकों के काटने पर उनकी भोजन लोलुपता को जानकर वे महात्मा उनपर क्रोध नहीं करते, न उन्हें उड़ाते, न उनकी उपेक्षा करते । ( ६ ) अचेलक परिषह - वे कभी यह नहीं सोचते कि वस्त्र नहीं है या यह वस्त्र खराब है । वे दोनों भाव से वस्त्र की उपेक्षा करते। वे लाभालाभ की विचित्रता को जानते थे अत: कभी भी ध्यान में विघ्न नहीं होने देते । (७) अरति परिषह - धर्म रूपी उद्यान में प्रीतिमय वे महामुनि कभी भी असन्तुष्ट नहीं
1
1