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परिवृत्त होकर महाराज सगर पहुँचे । जब वे समवसरण के उन्हें लगा जैसे उनकी श्रात्मा ने धर्म चक्रवर्ती
फिर भगीरथ और सामन्तों से महासमारोहपूर्वक समवसरण में उत्तर द्वार से प्रवेश कर रहे थे तो सिद्धक्षेत्र में प्रवेश कर रही हो । तदुपरान्त चत्री अजितनाथ स्वामी को प्रदक्षिणा प्रकार स्तुति करने लगे ।
देकर नमस्कार किया और इस (श्लोक ६१६-६२२) मेरी प्रसन्नता में श्रापकी प्रसन्नता व आपकी प्रसन्नता में मेरी प्रसन्नता इस अनन्य श्राश्रय का पार्थक्य करें और मुझ पर प्रसन्न होवें । हे स्वामी, श्रापकी रूपलक्ष्मी को सहस्राक्ष इन्द्र भी देखने में असमर्थ हैं एवं आपके गुणों के वर्णन में सहस्रजिह्व शेषनाग भी असमर्थ है । हे प्रभो, आपने अनुत्तर विमान के देवतानों के भी संशय को दूर किया इससे अधिक और कौन-सा गुण स्तुत्य हो सकता है ? आप में प्रानन्द सुख भोग की शक्ति है तो उसके त्याग की भी शक्ति है परस्पर इस विरोधाभास पर प्रश्रद्धालु कैसे श्रद्धा कर सकते हैं ? नाथ, आप सभी प्राणियों पर उपेक्षा भाव रखते हैं और साथ ही साथ सबके कल्याणकारी भी हैं । यह सत्य बात भी असत्य -सी लगती है । हे भगवन्, ऐसे परस्पर विरोधी गुरण अन्य किसी में नहीं हैं । आप में परम त्याग भी है, परम चक्रवर्त्तीत्व भी । दोनों ही एक साथ हैं । जिनके कल्याणक
।
हे
पर्व पर नारकी जीवों को भी सुख प्राप्त होता है उनके पवित्र चरित्र का वर्णन करने की शक्ति किसमें है ? आपका शम अद्भुत है, श्रापका रूप अद्भुत है और समस्त प्राणियों के प्रति आपकी दया भी अद्भुत है । इन सभी श्रद्भुततानों के नमस्कार करता हूँ ।
भण्डार आपको मैं
( श्लोक ६२३-६६०)
इस भांति जगन्नाथ प्रभु की स्तुति कर योग्य स्थान पर बैठकर सगर ने उनकी अमृत प्रवाह तुल्य धर्म देशना सुनी । देशना के अन्त में सगर राजा बार-बार प्रभु को नमस्कार कर करबद्ध होकर गद् गद् कण्ठ से बोले - हे तीर्थेश, यद्यपि आपके लिए न कोई अपना है न पराया, फिर भी अज्ञानवश होकर मैं आपको भाई की तरह ही देखता हूँ । हे नाथ, जब आप इस दुस्तर संसारसागर से समस्त जगत का त्राण करते हैं तब मुझसे निमज्जमान की उपेक्षा क्यों कर रहे हैं ? हे जगत्पति, अनन्त क्लेशपूर्ण इस संसार रूप गर्त में पतित होने से प्राप मुझे बचाएँ । प्रसन्न होकर