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मुझे दीक्षा दें। हे स्वामी, मैं संसार-सुख में प्राबद्ध होकर मूर्ख
और अविवेकी बालक की तरह अपने जीवन को निष्फल एवं नष्ट कर रहा हूं। इस भाँति युक्तकर खड़े सगर राजा को भगवान ने दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति दी। (श्लोक ६३१-६३७)
तब भगीरथ ने उठकर नमस्कार किया एवं प्रार्थना पूर्ण करने में कल्पवृक्ष-से भगवान के निकट जाकर इस भाँति प्रार्थना की-हे पूज्यपाद, आप मेरे पितामह को दीक्षा दें, पर जब तक निष्क्रमणोत्सव न करूं तब तक प्रतीक्षा करें। यद्यपि मुमुक्षमों को उत्सवादि की कोई प्रावश्यकता नहीं होती फिर भी पितामह मेरे प्राग्रह को स्वीकार करेंगे।
(श्लोक ६३८-६४०) यद्यपि राजा सगर तत्क्षण दीक्षा ग्रहण को उत्सुक थे फिर भी पौत्र के प्राग्रह पर जगद्गुरु को प्रणाम कर पुनः नगर में लोट पाए। तत्पश्चात् इन्द्र जिस प्रकार तीर्थंकरों का दीक्षाभिषेक करता है उसी प्रकार भगीरथ ने सगर राजा को सिंहासन पर बैठाकर उनका दीक्षाभिषेक किया। गन्धकषायी वस्त्र से उनकी देह पोंछी एवं गोशीर्ष चन्दन का विलेपन किया। फिर सगर राजा ने दो दिव्य मांगलिक वस्त्र धारण किए और गुणों से अलंकृत होने पर भी देवताओं द्वारा प्रदत्त अलङ्कारों से स्व-देह को अलंकृत किया। तदुपरान्त याचकों को इच्छानुसार धन देकर उज्ज्वल छत्र और चमर सहित शिविका में बैठे। नगरवासियों ने प्रत्येक घर, प्रत्येक दूकान, प्रत्येक पथ पत्रावलो को तोरण और मण्डप से सज्जित किया। राह में चलते समय स्थान-स्थान पर देश और नगर के अधिवासियों ने पूर्ण पात्रादि द्वारा उनके बहुत से मङ्गल किए। सभी बार-बार सगर राजा को देखते थे और पूजन करते थे। बार-बार उनकी स्तुति करते और उनका अनुसरण करते। इस प्रकार जैसे प्राकाश में चन्द्रमा चलता है उसी प्रकार सगर अयोध्या के मध्य धीरे-धोरे चलते हुए मनुष्यों की भीड़ में स्थान-स्थान पर रुकते हुए अग्रसर होने लगे । भगीरथ सामन्त अमात्य परिवार एवं अनेक विद्याधर उनके पीछे-पीछे चलने लगे। इसी क्रम से चलते हुए सगर चक्री प्रभु के निकट पहुँचे। वहाँ भगवान को प्रदक्षिणा देकर प्रणाम कर भगीरथ द्वारा लाए यति वेश को अंगीकार दिया। फिर समस्त संघ के सम्मुख स्वामी की वाचना से उच्च स्वर से सामायिक उचचारित