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जाएगा । अतः केवली प्रभु की चरण-वन्दना कर रथ पर प्रारूढ़ हुए और अयोध्या लौट आए ।
( श्लोक ६०२-६०४) श्राज्ञानुपूर्वक कार्य कर लौट थाने पर प्रणामरत पौत्र का मस्तक चक्री सगर ने बार-बार प्राघ्रारण किया । तदुपरान्त उसकी पीठ पर हाथ रखकर बोले- हे तात ! तुम बालक होने पर भी बुद्धि में स्थविर पुरुषों के अग्रणी हो । इसलिए तुम 'मैं अभी बालक हूँ' ऐसा न कहकर इस राज्यभार को ग्रहण करो ताकि मैं भार-रहित होकर संसार सागर उत्तीर्ण करने का प्रयास करू । यह संसार यद्यपि स्वयंभूरमण समुद्र की तरह दुस्तर है फिर भी मेरे पूर्व पुरुषों ने उसे उत्तीर्ण किया है । एतदर्थ मेरी भी श्रद्धा है । उनके भी पुत्र राज्यभार ग्रहण करते थे । उन्हीं के द्वारा ही निर्देशित यह पथ है धारण करो ।
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तुम भी उसी पथ पर चलकर इस पृथ्वी को ( श्लोक ६०५ -६०९) भगीरथ पितामह को प्रणाम कर बोले - हे पितामह, आप संसार-सागर को उत्तीर्ण करने वाली दीक्षा ग्रहण करना चाहते हैं यह उचित ही है; किन्तु मैं भी व्रत ग्रहण करने को उत्सुक हूं । अतः राज्य दान के प्रसाद से मुझे निराश न करें । (श्लोक ६१०-६११) तब चक्रवर्ती बोले- हे वत्स, व्रत ग्रहण करना हमारे कुल के योग्य है; किन्तु उससे भी अधिक योग्य गुरुजनों का प्रदेशपालन रूपी व्रत है । अतः हे मदाशय, समय आने पर जब तुम्हारे कवचधारी पुत्र होगा तब उसे राज्यभार सौंपकर तुम भी मेरी तरह व्रत ग्रहण कर लेना । (श्लोक ६१२-६१३) यह सुनकर भगीरथ गुरुजनों की प्राज्ञा भग के भय से भयभीत हो गया । उस भयभीरु का मन विचलित हो गया । अतः बहुत देर तक वे चुपचाप खड़े रहे । तत्पश्चात् सगर चक्री ने परमानन्द से भगीरथ का राज्याभिषेक किया । ( श्लोक ६१४-६१५) उसी समय उद्यान - पालक ने आकर सूचना दी कि उद्यान में भगवान अजितनाथ का समवसरण लगा है । पौत्र के राज्याभिषेक और प्रभु अागमन के संवाद से चक्री आनन्दित हो उठे । प्रासाद में रहते हुए भी उन्होंने उठकर प्रभु को नमस्कार किया और मानो वे सम्मुख ही खड़े हों एस प्रकार शक्रस्तव से उनकी स्तुति की। भगवान के आगमन का सुसंवाद लाने वाले उद्यानपालक को चक्री ने साढ़े बारह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ पुरस्कार रूप में दी ।