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कैसे किया जाता है यह बताया था। अतः तुम्हारा भी कुलाचार के अनुरूप व्यवहार करना ही उचित है। (श्लोक ५४०-५५४)
महाभाग भगीरथ ने पितामह की प्राज्ञा को सादर स्वीकार किया। कारण, जो स्वभावतः ही विनीत है उनको उपदेश देना उत्कृष्ट भित्ति पर चित्राङ्कन जैसा है।
(श्लोक ५५५) तदुपरान्त सगर चक्री ने भगीरथ को अपने प्रताप तुल्य सामर्थ्य युक्त दण्डरत्न अर्पित कर ललाट चूमकर विदा किया। भगीरथ चक्री के चरण-कमलों में प्रणाम कर दण्डरत्न सहित विद्युत सह मेघ की भांति वहाँ से प्रस्थान कर गए। (श्लोक ५५६-५५७)
चक्री प्रदत्त सैन्य और उस देश के लोगों द्वारा परिवत भगीरथ प्रकीर्ण और सामानिक देवों से परिवृत इन्द्र के समान शोभित हो रहे थे। क्रमशः वे अष्टापद के निकट पहुंचे। वहाँ उन्होंने उस पर्वत को समुद्र द्वारा वेष्टित त्रिकटाद्रि की तरह मन्दाकिनी द्वारा परिवृत पाया। विधिज्ञाता भगीरथ ने ज्वलनप्रभ के उद्देश्य से अष्टम तप किया । अष्टम तप पूर्ण होने पर नागकुमारों के अधिपति ज्वलनप्रभ प्रसन्न होकर भगीरथ के निकट पाए। भगीरथ ने गन्ध, पुष्प और धूप द्वारा अनेक प्रकार से उनका पूजन किया। प्रसन्न वदन नागकुमारों के अधिपति ने उनसे पूछा-मैं तुम्हारा क्या उपकार कर सकता हूँ ? (श्लोक ५५८-५६२)
तब मेघ के समान गम्भीर वाणी में भगीरथ ने ज्वलनप्रभ इन्द्र से कहा-देव, यह गङ्गा नदी अष्टापद के प्राकार को पूर्ण कर क्षुधात नागिन की तरह चारों ओर फैल गई है। इसने अट्टालिकामों को भग्न किया है, वृक्षों को विनष्ट किया है, समस्त गह्वर और टीलों को समान बनाया है। पिशाचिनी की तरह उन्मत्त होकर देश को विनष्ट करने वाली इस गङ्गा को यदि आप प्राज्ञा दें तो दण्डरत्न द्वारा आकृष्ट कर समुद्र में डाल दूं। (श्लोक ५६३-५६७)
प्रसन्न होकर ज्वलनप्रभ ने कहा-तुम अपनी इच्छानुसार कार्य करो। वह निर्विघ्न पूर्ण होगा। तुम मेरी प्राज्ञा से काम करोगे तो भरत क्षेत्र निवासी मेरी प्राज्ञा पालनकारी सॉं द्वारा तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट नहीं होगा। ऐसा कहकर नागेन्द्र रसातल को चले गए । तब भगीरथ ने अष्टम तप का पारणा किया।
... (श्लोक ५६८.५७०) फिर वैरिणी की तरह पृथ्वी को भेद करने वाली गङ्गा को