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पाताल की भांति दुष्पूर परिखा को क्षणमात्र में भर डाला और अब कुलटा स्त्री जिस तरह दोनों कुलों की मर्यादा का उल्लंघन करती है उसी प्रकार दोनों कलों का अतिक्रम कर अष्टापद के निकटस्थ ग्राम, प्राकर और नगरों को डुबाकर समुद्र की ओर फैल रही है । हम लोगों के लिए तो प्रलय काल अभी ही आ गया है । कहिए हम कहाँ जाकर रहें जहाँ कोई उपद्रव न हो?
(श्लोक ५३३-५३९) तब सगर चक्री ने अपने पौत्र भगीरथ को बुलवाया और वात्सल्यपूर्ण वारणी में कहा-वत्स, अष्टापद के चारों ओर की परिखा को पूर्णकर इस समय गंगा उन्मत्त स्त्री की भाँति ग्रामों में विचरण कर रही हैं। उसे दण्डरत्न से आकृष्ट कर पूर्वी समुद्र में डाल दो। कारण जल को जब तक पथ नहीं दिखा दिया जाता है तब तक वह अन्धे की भांति उन्मार्ग पर विचरण करता है। असामान्य बाह पराक्रम भुवनोत्तर ऐश्वर्य, महान् हस्तीबल, विश्व विख्यात् अश्वबल, महापराक्रमी पदातिक बल, वृहद् रथबल और अति उत्कट प्रताप, निःसीम कौशल और दैवी आयुध जिस प्रकार शत्रु का गर्व हरण करता है उसी प्रकार लगता है कि इन सबके अभिमान ने ही हमें हानि पहुँचायी है। हे पुत्र, अभिमान समस्त दोषों में अग्रणी है, आपत्तियों का स्थान है, सम्पत्ति सुखों का हर्ता, परलोक भिजवाने वाला और स्व-शरीर से उत्पन्न शत्रु है । ऐसा अभिमान जब सन्मार्गगामी सामान्य लोगों के लिए भी त्याज्य है तब मेरे पौत्र के लिए तो विशेषतया परित्याज्य है। हे पौत्र, तुम्हें विनीत होकर गुणों की पात्रता प्राप्त करनी होगी। विनयहीन अशक्त मनुष्य भी उत्कृष्ट गुणों को प्राप्त करता है और यदि शक्तिमान पुरुष विनयी बने तो सोने में सुहागे की तरह वह निष्कलंक चन्द्र-सा हो जाता है। सुर-असुर और नागरिकों को तुम्हें यथायोग्य क्षेत्र में और सुख कारक कार्यों में नियुक्त करना होगा। नियोग योग्य कार्यों में नियुक्त करना दोषवाहक नहीं है। किन्त, जिस प्रकार पित्त प्रकृति वाले व्यक्ति को ताप का सेवन करना दोषयुक्त है उसी प्रकार अनियोग योग्य कार्य में नियुक्त करना उचित नहीं है । ऋषभ स्वामी के पुत्र भरत चक्री ने नियोग योग कार्य में नियुक्त कर देव और दानव दोनों को ही वशीभूत किया है। वे शक्तिमान थे फिर भी देवों के साथ योग्य व्यवहार .