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है, भूमि औषधि; समुद्र निज मर्यादा में स्थित व पृथ्वी स्थिर रहती है । आप मेरी पत्नी जिसे मैं न्यास रूप में प्रापके पास रख गया था मुझे लौटा दें । राजन्, अब मैं अपनी क्रीड़ा भूमि को लौट जाऊँगा । शत्रु के निहत हो जाने से में वैताढ्य और जम्बूद्वीप के जलकटकादि पर आपकी कृपा से स्व- स्त्री सहित प्रानन्द का उपभोग करूँगा । ( श्लोक ४६८ - ४९१ ) उसकी बात सुनकर राजा चिन्ता, लज्जा, निराशा और विस्मय से आक्रान्त होकर उससे बोले - हे भद्र, तुम अपनी पत्नी को मेरे पास न्यास रूप में रख गए । थोड़ी देर पश्चात् ही हमने आकाश से आती तलवार और बरछों की ध्वनि सुनी। तदुपरान्त क्रमशः तुम्हारे हाथ पाँव, देह और मस्तक धरती पर ना पड़े । तुम्हारी पत्नी ने निश्चयात्मक स्वर में कहा कि ये अङ्ग-प्रत्यङ्ग मेरे पति के ही हैं। उसने पति के साथ सती होने की इच्छा प्रकट की । कन्या - स्नेह से मैंने उसे रोकने की बहुत चेष्टा की; किन्तु उसने इसका दूसरा अर्थ लेकर मुझे भी अन्य लोगों की भाँति ही समझा । जब उसके आग्रह पर मैंने सम्मति दी तो वह नदी तट पर गई और सबके सम्मुख पति की खण्ड-खण्ड हुई देह को लेकर चिता पर श्रारूढ़ हो गई । अभी-अभी मैं उसे निवापाञ्जलि देकर आ रहा हूँ । मन शोक से खिन्न हो रहा है; किन्तु तुम तो लौट श्राए हो । स्पष्टतया बताओ, क्या वे अंग-प्रत्यंग तुम्हारे नहीं थे ? या पहले जो मेरे पास प्राया था वह तुम नहीं थे ? मैं तो संशय से व्याकुल हो गया हूं; किन्तु इस विषय में अज्ञान ने जिसका मुँह बन्द कर दिया है वह इससे अधिक और क्या बोल सकता है ?
( श्लोक ४९२- ४९९) यह सुनकर कृत्रिम क्रोध से वह विद्याधर बोला- हे राजन्, कितने दुःख की बात है यह ! मैंने लोगों से सुनकर आपको पर-स्त्री सहोदर समझा था; किन्तु देख रहा हूँ वह झूठ था । आपकी उसी प्रसिद्धि से मैंने मेरी पत्नी को आपके पास न्यास रूप में रखा था; किन्तु आपका आचरण देखने में कोमल दिखता हुआ कमल जैसा है जबकि परिणाम में लौह सिद्ध होता है । जो काम मेरे दुराचारी शत्रु ने किया खेद सहित कहता हूँ वही काम आपने भी अब कर डाला है । अब बताइए आप दोनों में क्या पार्थक्य है ? राजन्, सचमुच ही यदि प्राप पर स्त्री पर आसक्त नहीं हैं और लोकापवाद