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से डरते हैं तो मेरी पत्नी मुझे लौटा दें। उचित नहीं । यदि प्राप-सा पवित्र पुरुष भी तो कृष्ण सर्प की तरह विश्वास पात्र और कौन होगा ?
उसे छिपाकर रखना अपवित्र हो सकता है
( श्लोक ५०० - ५०४ )
तब राजा ने कहा- तुम्हारे प्रत्येक अंगों को पहचान कर तुम्हारी पत्नी ने अग्नि प्रवेश किया है इसमें कोई संशय नहीं । देश - नगर के सभी लोग इसके साक्षी हैं । प्रकाश में अवस्थित गगन-चक्षु सूर्य भी इसके साक्षी हैं। चार लोकपाल, ग्रह, नक्षत्र, तारक, भगवती पृथ्वी और जगत् के पिता धर्म भी इसके साक्षी हैं । अतः तुम्हारा ऐसा कठोर वचन बोलना उचित नहीं है । इनमें से तुम किसी को भी प्रमारण रूप में पूछ सकते हो ।
( श्लोक ५०५-५०८ ) राजा की बात सुनकर कृत्रिम क्रोध करता वह विद्याधर कठोर आवाज में पुनः बोला - जहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण है वहाँ अन्य प्रमाण की आवश्यकता ही क्या है ? आपके पीछे कौन बैठी है देखिए | आपकी बात तो समीप ही चोरी का माल छिपाकर शपथ लेने जैसा है । राजा ने पीछे घूमकर देखा तो वहाँ उसकी पत्नी को बैठा पाया । भ्रतः पर- स्त्री दोष से दूषित हुआ हूँ इसी चिन्ता से जैसे पुष्प ताप से म्लान हो जाता है उसी भाँति म्लान हो गए । निर्दोष राजा को दोष की शङ्का से खिन्न होते देखकर वह व्यक्ति करबद्ध होकर बोला- राजन्, क्या श्रापको याद है बहुत दिन पहले इन्द्रजाल विद्या का अभ्यास कर आपको दिखाने के लिए मैं आपके पास आया था; किन्तु प्रापने मुझे द्वार से ही लौटा दिया था ? आप मेघ की तरह समस्त विश्व पर कृपा करने वाले हैं; किन्तु दुर्भाग्य से मेरी इच्छा पूर्ण न हो सकी। इसके कुछ दिन पश्चात् ही रूप परिवर्तन कर कपट नाटक के द्वारा मैंने आपको अपनी कला दिखाई। अब मैं कृतार्थ हो गया हूँ । श्राप मुझ पर प्रसन्न हों । अपना गुरण चाहे जैसा भी हो उसे महापुरुषों को दिखाना चाहिए अन्यथा गुण को प्राप्त करने में जो परिश्रम होता है वह सफल नहीं होता । प्राज मेरा श्रम सफल हुआ। अब आज्ञा दें मैं जाऊँ । अपना गुरण आपको दिखाकर अन्य स्थान के लिए मैं महार्घ हो गया हूं । राजा ने उसे बहुत धन देकर विदा किया ।
( श्लोक ५०९-५१९)