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बोली-आप अभी भी मुझे रोक रहे हैं ? इससे लगता है पाप पिता नहीं हैं। आप पर-स्त्री सहोदर के नाम से ही विख्यात हैं; " किन्तु वह तो केवल लोगों में विश्वास उत्पन्न करने के लिए है, परमार्थ के लिए नहीं। यदि आप सचमुच ही धर्मात्मा पिता हैं तो स्व-कन्या को इसी मुहूर्त में अग्नि-मार्ग से पति के निकट जाने दें।
' (श्लोक ४५४-४५६) इस प्रकार बाध्य होकर राजा ने उसे उसकी इच्छा पूर्ण करने की आज्ञा दे दी और बोले-बेटी, अब मैं तुम्हें नहीं रोगा अब तुम अपना सतीव्रत पूर्ण करो।
(श्लोक ४५७) तब उस स्त्री ने प्रसन्न होकर राजा द्वारा मँगवाए रथ पर अपने हाथों से प्रादरपूर्वक पति की देह और अपनी देह को रखा और अपनी देह पर अङ्गराग कर श्वेत वस्त्र पहन केशों में फूल गूंथकर पूर्व की भांति ही पति के निकट जा बैठी । मस्तक नीचा किए शोकमग्न राजा रथ के पीछे-पीछे चले । नगर-निवासी आश्चर्थपूर्वक उस दृश्य को देखने लगे। इस भाँति वह नदी तट पर पायी। मुहूर्त भर में अनुचरों ने चन्दन काष्ठ लगाकर मानो मृत्युदेव की शय्या हो इस प्रकार चिता सजा दी। तदुपरान्त पिता की भाँति राजा ने उसे धन दिया। उस धन को उसने कल्पलता की तरह याचकों में वितरित कर दिया। अंजलि में जल भरकर दक्षिणावर्त से ज्वालामयी अग्नि को प्रदक्षिणा दी और सती के सत् धर्म का पालन कर पति की देह के साथ गह की भाँति चिता की अग्नि में इच्छापूर्वक प्रवेश किया। खूब घी से सिंचित वह अग्नि पालोक शिखा से प्राकाश को प्रकाशित कर धू-ध करती जलने लगी। विद्याधर की देह, वह स्त्री और समस्त काष्ठ-खण्ड समुद्र में गिरा जल जैसे लवणमय हो जाता है उसी प्रकार जलकर राख हो गया।
(श्लोक ४५७-४६६) तदुपरान्त राजा निवापाञ्जलि देकर शोक-मथित हृदय से प्रासाद को लौट गए।
(श्लोक ४६७) शोकाकूल राजा जैसे ही राजसभा में जाकर बैठे कि वैसे ही हाथ में तलवार और बरछी लिए वह विद्याधर आकाश से नीचे उतरा। राजा और राज-सभासदों ने आश्चर्यचकित होकर उसकी ओर देखा । तब वह छद्मवेशी विद्याधर राजा के पास जाकर बोला-हे पर-स्त्री और पर-धन अनिच्छुक राजा, आपके