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की तरह गो-शीर्ष चन्दन के रस से कौन मेरा अङ्गराग करेगा ? सैरन्ध्री दासी की भाँति मेरे कपोल पर, ग्रीवा पर, ललाट पर और स्तनकुम्भों पर कौन पत्र-रचना करेगा? मुझ रूठी हुई को राजमैना की तरह कौन बुलाएगा ? निद्रा का छल कर सो जाने पर अब कौन मुझे 'हे प्रिये, हे देवी' आदि मधुर वाणी से जगाएगा? प्रात्मा की विडम्बना तुल्य अब क्यों देर करू ? अतः हे नाथ, महामार्ग के हे महान् पथिक ! मैं आपका अनुसरण कर रही हूँ।
(श्लोक ४३१.४४२) इस प्रकार विलाप करती हई उस स्त्री ने पति के मार्ग का अनुसरण करने की इच्छा से राजा के सम्मुख करबद्ध होकर वाहन की तरह अग्नि की याचना की। राजा उसे बोले-बेटी, तुम्हारा संकल्प पवित्र है; किन्तु पति की स्थिति को पूर्णतया जाने बिना तुम यह क्या कह रही हो? कारण, राक्षस और विद्याधर इस प्रकार की माया भी रचते हैं। अतः कुछ समय तक अपेक्षा करो। बाद में प्रात्म-साधन तो तुम्हारे हस्तगत ही है। (श्लोक ४४३-४४५)
तब वह पुनः बोली-ये मेरे पति ही हैं। इसमें भूल नहीं है। युद्ध में वे इसी प्रकार काट कर मार डाले गए हैं। संध्या सूर्य के साथ ही उदित होती है और उसी के साथ अस्त होती है। इसी भांति पतिव्रता नारी भी पति के साथ ही जीवित रहती है और पति के साथ ही मृत्यु को वरण करती है। प्रब जीवित रहकर क्यों पिता और पति के निर्मल कुल को कलङ्कित करूं ? मैं आपकी धर्म-कन्या हूं। उसे पतिहीन होकर भी जीवित देखकर हे पिता, कुल स्त्री के धर्म के ज्ञाता होने पर आप क्यों लज्जित नहीं हो रहे हैं ? जिस भाँति चन्द्र के बिना चन्द्रिका नहीं रहती, मेघ के बिना विद्युत, उसी भाँति पति के बिना जीवित रहना भी उचित नहीं है। अतः अब अनुचरों को आदेश देकर मेरे लिए काष्ठ मँगवा दें (चिता के लिए) ताकि मैं अग्नि में पति के साथ जल की तरह प्रवेश करू।
(श्लोक ४४६-४५१) उसकी यह विनती सुनकर वे दयालु राजा शोक से विह्वल हुई वाणी में बोले-हे बेटी, कुछ क्षण और धैर्य रखो। पतङ्ग की तरह जलकर मरना तुम्हारे लिए उचित नहीं होगा। छोटा कार्य भी बिना विचार नहीं करना चाहिए। (श्लोक ४५२-४५३)
राजा की बात सुनकर इस बार वह क्रुद्ध हो उठी और