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के लिए विद्याधरी उसके पास गयी। देखते ही बोल उठी, मेरे ललाट तिलक, कर्णफूल और कण्ठहार-सा यह हाथ मेरे पति का ही है।
(श्लोक ४१३-४२७) वह स्त्री इस प्रकार जब बोल रही थी और मृगी की तरह देख रही थी उसी समय यह निश्चित कराने के लिए कि यह हाथ किसका है एक पाँव पाकर जमीन पर गिरा। कड़ा पहने हुए उस पाँव को देखकर और पहचानकर रोती-रोती वह कमलवदना बोली-अरे, यह तो मेरे पति का ही वह पांव है जिसे मैंने अपने हाथों से मला है, धोया है, पोंछा है और विलेपन किया है। वह इस भांति विलाप कर ही रही थी कि उसी समय अन्धड़ से टूटे हुए वृक्ष की डाल-सा आकाश से दूसरा हाथ पाकर जमीन पर गिर पड़ा। रत्न-जटित भुजबन्ध व कड़े युक्त उस हाथ को देखकर धारायन्त्र की पुत्तलिका की तरह अश्रु प्रवाहित करती हुई वह बोल उठी-हाय ! हाय ! यह तो मेरे पति का दाहिना हाथ है जो कंकतिका से मेरी माँग में सिन्दर भरता था और विचित्र पत्रलतिका की लीला-लिपि लिखता था। उसकी बात समाप्त भी न हो पायी कि आकाश से एक और पाँव आकर गिरा। उसे देखकर वह पुनः बोल उठी-हाय ! हाय ! यह मेरे पति का ही पाँव है जिसे मैं अपने हाथों से दबाती थी और मेरी गोद में सुलाती थी। तभी एक मुण्ड, एक स्कन्ध उस स्त्री को रुलाता हुप्रा, उस पृथ्वी को केंपाता हा जमीन पर आ गिरा। (श्लोक ४२८-४३०)
फिर वह स्त्री रोती हुई कहने लगी-हाय ! उस कपटी शत्रु ने मेरे पति को मार डाला। मेरा तो सर्वनाश हो गया। यही है मेरे पति का वह कमल तुल्य मुख, जिसे मैंने परम प्रीति के साथ कूण्डलों से सजाया था। हाय ! यही है मेरे पति का विशाल वक्ष, जिसमें बाहर-भीतर केवल मेरा ही निवास था। हे नाथ ! अब मैं अनाथ हो गई हूं। हे स्वामी, तुम्हारे बिना अब कौन नन्दन वन से पुष्प लाकर मेरे केशदाम को सज्जित करेगा? किसके साथ एक आसन पर बैठकर आकाश में विचरण करते हुए सुखपूर्वक वल्लकी वीणा बजाऊँगी? कौन मुझे अब वीणा की भाँति अपनी गोद में बैठाएगा? शय्या पर फैले मेरे केशों को कौन ठीक करेगा ? प्रौढ़ स्नेह की क्रीड़ा से अब मैं किस पर कोप करूंगी? अशोक वृक्ष की तरह पद-प्रहार किसे हर्षोत्फुल्ल करेगा? हे प्रिय, कौमुदी