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166] वाले उस वेदनादायक शब्द को सुनकर सभी वन्य हरिण की तरह उत्कर्ण हो गए। तब उस ब्राह्मण ने कुछ माथा उठाकर, कुछ प्रासन से उठकर, कुछ प्रोष्ठ वक्र कर कहा-हे राजन्, आकाश और पृथ्वी को व्याप्त करने वाली गर्जना सुनिए-यह आपके प्रयाणकालीन भम्भा ध्वनि की तरह है। जिसका सामान्य जल ग्रहण कर पुष्करावादि मेघ समस्त पृथ्वी को डुबा देने में समर्थ हैं वही समुद्र मर्यादा का उल्लङ्कन कर अबाधगति से इस पृथ्वी को डुबाने पा रहा है। वह देखिए-समुद्र गह्वरादि को भर रहा है। वृक्षों को मथिन कर रहा है, भूमि को प्राच्छादित कर रहा है, पर्वतों को डबा रहा है। प्रोह ! कैसा दुर्वार है।यह समुद्र ! जोर से
आँधी पाने पर उससे बचने के लिए घर में प्रवेश किया जा सकता है, आग को बुझाने के लिए जल का प्रयोग किया जा सकता है। किन्तु धावमान समुद्र को रोकने के लिए कोई उपाय नहीं है । जब ब्राह्मण यह कह रहा था तभी देखते-देखते मृगतृष्णा के जल की तरह दूर से चारों तरफ व्याप्त जलराशि दिखाई पड़ी।
(श्लोक ३३७-३४५) जिस प्रकार कसाई विश्वास करने वाले को विनष्ट कर देता है उसी प्रकार समुद्र ने विश्व का संहार कर दिया है-ऐसी हाहाकार ध्वनि उठी। लोग क्रुद्ध होकर जोर-जोर से चिल्लाने लगे-तब वह ब्राह्मण राजा के पास आकर अंगुली से दिखाता हुमा क्रूर की तरह बताने लगा-देखिए, उधर डूब गया, वह देखिए उधर डूब गया। अन्धकार की तरह जल से पर्वतों के शिखर तक ढक गए हैं मानो ये सारे वन जल ने उखाड़कर फेंक दिए हों। अतः वे सारे वृक्ष अनेक प्रकार से जल-जन्तुओं की तरह तैरते हुए दिखाई पड़ रहे हैं। थोड़े समय के अन्दर ही यह जल ग्राम, खान और नगरों को विनष्ट कर देगा । ओह ! ऐसी भवितव्यता को धिक्कार है। पीछे से चुगली करने वाले व्यक्ति का वह दोष जिस प्रकार उसके अन्य सद्गुणों को ढंक देता है उसी प्रकार उच्छल जलराशि ने समस्त नगर को ढंक दिया है। हे राजन्, समुद्र का जल इस प्रकार दुर्ग के चारों ओर परिखा की तरह व्याप्त हुया जा रहा है और प्राकारों पर प्राघात कर रहा है। अब यह जल दुर्ग में प्रवेश कर रहा है। ऐसा मालम हो रहा है कि घोड़ा सवार सहित उसे लाँघ रहा है । देखिए, समुद्र जल से सारे मन्दिर, प्रासाद, नगर