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वाला यह ब्राह्मण सातवें दिन मारा जाएगा । यह भी हो सकता है कि युगान्तर ही घटित हो नहीं तो क्या अपने प्राणों को संकट में डालकर कोई ऐसा कहेगा ? ब्राह्मण सोचने लगा, मैं सातवें दिन सबको आश्चर्यचकित कर दूंगा । उत्सुकता के प्राधिक्य के कारण उस ब्राह्मण ने बहुत कष्ट से सात दिन व्यतीत किए। संशय मिटाने के लिए राजा ने भी बार-बार गिनते हुए छह दिनों को छह मास की तरह व्यतीत किया। सप्तम दिन राजा चन्द्रशाल (छत) पर बैठकर ब्राह्मण से बोले - हे विप्र, प्राज तुम्हारे वाक्य प्रौर जीवन
अवधि पूर्ण हुई, कारण तुमने कहा था कि सातवें दिन प्रलय के लिए समुद्र उत्क्षिप्त होगा; किन्तु अभी तक तो कहीं ज्वार के चिह्न पर्यन्त दिखायी नहीं पड़े हैं । तुमने तो कहा था कि सब कुछ प्रलय हो जाएगा । अत: सभी तुम्हारे बैरी हो गए हैं । यदि तुम्हारा कथन मिथ्या निकला तो सभी तुम्हें दण्ड देने को उत्सुक हो जाएँगे; किन्तु तुम हो तुच्छ जीव । तुम्हें दण्ड देकर भी मुझे क्या लाभ होगा ? अतः अब तुम यहाँ से चले जानो । कथन उन्मत्त अवस्था में कहा था ।
लगता है तुमने यह ( श्लोक ३२० - ३२९)
फिर उन्होंने रक्षकों को आज्ञा दी - बेचारे इस गरीब को छोड़ दो ताकि यह सुख-स्वच्छन्दतापूर्वक चला जाए । इस पर हास्यमुख उस ब्राह्मरण ने कहा- महात्मानों को यह योग्य ही है कि वे सबके प्रति दयालु होते हैं; किन्तु हे राजन् ! जब तक मेरी प्रतिष्ठा मिथ्या नहीं हो जाती है मैं दया का पात्र नहीं हूँ । जब मेरा कथन झूठ निकलेगा तब आप मेरा वध कराने में समर्थ होंगे। जब मैं वध के योग्य हो जाऊँगा तब यदि आप मुझे छोड़ देंगे तो दयालु कहलाएंगे । यद्यपि श्रापने मुझे छोड़ दिया है; किन्तु मैं यहाँ से जाऊँगा नहीं, कैदी की तरह रहूँगा । अब मेरे कथन को सत्य प्रमाणित होने में सामान्य-सा ही समय अवशेष है । अल्प समय के लिए धैर्य रखें और यहाँ अवस्थित रहकर यमराज के अग्रगामी सैनिकों के समान समुद्र की धावमान तरंगों को देखें । श्रापकी सभा के ज्योतिषियों को अल्प समय के लिए साक्षी रखें । कारण, क्षण मात्र के पश्चात् आप, मैं और ये कोई यहाँ नहीं रहेंगे ।
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( श्लोक ३३०-३३६)
ऐसा कहकर वह मौन हो गया । क्षण भर के पश्चात् ही मृत्यु की गर्जना - सा एक अव्यक्त शब्द सुना गया । अकस्मात् होने