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[167 कुण्ड की तरह भर रहे हैं । हे राजन् श्रश्वारोही सैन्य की तरह वह जल गरजता हुआ आपके गृह-द्वार की ओर तेजी से आ रहा है । हे पृथ्वीपति, जल में डूबे नगर का मानो शेष भाग हो इस प्रकार आपका प्रासाद इस समय बन्दर-सा लग रहा है । प्रापकी कृपा से उन्मत्त राज-सेवक जिस प्रकार आपके प्रासाद के शिखरों पर चढ़ रहे हैं जल भी उसी प्रकार प्रबाध गति से प्रासाद के शिखर की र दौड़ा श्रा रहा है । आपके प्रासाद की पहली मञ्जिल जल में डूब गई है, दूसरी डूब रही है, तीसरी ने भी डूबना प्रारम्भ कर दिया है । वह देखिए, देखते-देखते चतुर्थ, पञ्चम और छठी मंजिल भी जल में डूब गई है । विष के वेग की तरह चारों ओर से जल का ज्वार इस घर के चारों ओर श्रा रहा है । हे राजन्, वह देखिए, प्रलय हो गया । मैंने जैसा कहा था वैसा ही हुआ । उस समय जो मुझे देखकर हँस रहे थे प्रापकी सभा के वे ज्योतिषीगरण अब कहाँ गए ? ( श्लोक ३४६-३६१)
तब विश्व-संहार के शोक से व्याकुल राजा उठे और मर्कट की भाँति पानी में छलांग लगा गए । क्षरणमात्र के पश्चात् ही राजा ने स्वयं को पूर्ववत् ही सिंहासन पर बैठा पाया, वह समुद्र जल मुहूर्त भर में न जाने कहाँ अन्तर्हित हो गया ? राजा के नेत्र प्राश्चर्य से विस्फारित हो गए । उन्होंने देखा - वृक्ष, पर्वत, दुर्ग और समस्त विश्व जैसा था वैसा ही है । (श्लोक ३६२-३६५)
तत्पश्चात् वह ऐन्द्रजालिक ने ढोलक लेकर बजाते हुए कहाप्रथम में इन्द्रजाल के प्रयोगकर्ता और सर्वप्रथम इन्द्रजाल के रचयिता संवर नामक इन्द्र के चरण-कमलों में प्रणाम करता हूं। अपने सिंहासन पर बैठे राजा ने प्राश्चर्य के साथ उस ब्राह्मण से पूछा - यह सब क्या है ? तब ब्राह्मण ने कहा- मैं आपको समस्त कलाओं का ज्ञाता और गुणग्राही समझकर आपके पास आया था । उस समय आपने मेरा यह कहकर तिरस्कार कर दिया कि इन्द्रजाल मतिभ्रष्ट बनाता है एवं बिना इन्द्रजाल को देखे ही आपने मुझे धन देना चाहा था । मैंने वह ग्रहण नहीं किया और क्रुद्ध होकर चला गया । गुण वालों के गुणों की प्राप्त करने में जो श्रम होता है वह खूब धन प्राप्त होने से सार्थक नहीं होता । गुणी के गुण को जानने से ही वह सार्थक होता है । अतः मैंने कपट ज्योतिषी बनकर आपको स्व- इन्द्रजाल विद्या दिखाई। अब आप प्रसन्न हों। मैंने आपके
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