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पर तो ऐसा नहीं लगता । ये सूर्यादि ग्रह जो कि उन शास्त्रों से सम्बन्ध रखते हैं वे तो अनुमान से भी ऐसा नहीं कहते । लवरण समुद्र ने जम्बूद्वीप को घेर रखा है । वह कभी भी इस ब्राह्मण की तरह मर्यादा का त्याग नहीं कर सकता । श्राकाश या पाताल से कोई नया समुद्र उत्पन्न हुआ हो तो वह विश्व को जलमय कर सकता है । यह ब्राह्मण दुस्साहसी, पिशाच का साधक और मत्त एवं उन्मत्त है | स्वभाव से ही बात पीड़ित है या असमय में शास्त्र पढ़ा है या यह मृगी का रोगी है अतः उच्छृङ्खल बनकर ऐसे वाक्य बोल रहा है । आप मेरु की तरह स्थिर और पृथ्वी की तरह सबको सहन करते हैं इसीलिए दुष्ट व्यक्ति स्वच्छन्दतापूर्वक ऐसी बात बोल सकता है । ऐसी बात साधारण लोगों के सम्मुख भी नहीं कही जा सकती तब फिर कोप और कृपा की शक्ति से सम्पन्न प्रापके सम्मुख तो बोला ही कैसे जा सकता है ? ऐसे दुर्वचन बोलने वाला क्या धीर है ? या ऐसे वचनों को सुनकर भी जो क्रुद्ध नहीं होता वह श्रोता ही धीर है ? यदि इन वाक्यों पर स्वामी की श्रद्धा हो तो हो कारण यह वाक्य तो बिना प्रमारण के ही स्वीकार करना होगा । पर्वत उड़ सकता है, आकाश में फूल खिल सकता है, अग्नि शीतल हो सकती है, बन्ध्या के पुत्र हो सकता है, गधे के सींग हो सकते हैं; किन्तु इसका कथन कभी भी सत्य नहीं हो सकता ।
( श्लोक २८२ - २९८ )
अपनी राजसभा के ज्योतिषियों की बात सुनकर योग्य और प्रयोग्य के ज्ञाता राजा ने कौतुहलपूर्वक नए ज्योतिषी की श्रोर देखा । वह ज्योतिषी भी मानो राज-ज्योतिषियों की उक्ति से प्रेरणा प्राप्त की हो इस भांति उपहासपूर्ण वाणी में बोलाहे राजन्, आपकी सभा के मंत्री क्या विदूषक हैं या वसन्त ऋतु के विनोद के व्यवस्थापक ? या ग्राम पण्डित ? हे प्रभो, आपकी सभा में यदि इस प्रकार के सभासद् रहेंगे तो चतुरता निराश्रित होकर नष्ट हो जाएगी । राजन्, आप विश्व में चतुर हैं । श्रापका इन मुग्ध मूर्खों के साथ बातचीत करना केशरी सिंह का श्रृंगाल से बातचीत करने जैसा अशोभनीय है । यदि ये कुलक्रमागत रूप में श्वापके सेवक हैं तो इन अल्पबुद्धि वालों को स्त्रियों की तरह पोषण करें । स्वर्ण और माणिक्य के मुकुट में जिस प्रकार कांचखण्ड शोभा नहीं देता उसी प्रकार ये आपकी सभा में बैठने योग्य