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मोह एक साथ उत्पन्न हुए। तब राजा को समझाने के लिए सुबुद्धि नामक मुख्य अमात्य अमृतमय वाणी में इस प्रकार बोले, समुद्र अपनी मर्यादा का परित्याग कर सकता है, पर्वत कम्पित हो सकता है, पृथ्वी चंचल हो सकती है, वज्र जर्जर हो सकता है; किन्तु आप जैसे महात्मा महान् दुःख प्रा पड़ने पर भी भयभीत नहीं होते । इस संसार में कुटुम्ब प्रभी है, अभी नहीं। एतदर्थ विवेकी पुरुष इनसे मोह नहीं रखते। इस विषय में एक कथा कहता है, ध्यान से सुनिए
(श्लोक २१०-२१९) ____ इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के किसी नगर में एक राजा थे। वे जैन धर्म रूपी सरोवर में हंस की तरह थे। वे सदाचार रूपी पथ के पथिक थे। प्रजा रूपी मयूर के लिए मेघ के समान थे । मर्यादा पालन में सागर-तुल्य थे। समस्त व्यसन रूपी तृणों के लिए अग्नि-रूप थे। दयारूप वलदों के लिए आश्रयरूप वृक्ष थे । कीर्तिरूप नदी के उद्गम के लिए पर्वत तुल्य एवं शील रूपी रत्नों के लिए रोहणाचल पर्वत थे। एकदिन वे सुखपूर्वक अपनी राजसभा में बैठे थे। तभी छड़ीदार ने प्राकर कहा-एक आदमी आपसे मिलने पाया है। उसके हाथ में फूलों की माला है। वह शिल्पी-सा लगता है। वह कुछ निवेदन करने के लिए आपसे मिलना चाहता है। वह पण्डित है या कवि, गन्धर्व है या नट, नीतिवेत्ता है या अस्त्रविद् या ऐन्द्रजालिक यह नहीं जानता, किन्तु प्राकृति से गुणवान लगता है। कहा भी गया है-जहाँ प्राकृति सुन्दर है वहाँ गुण भी होते हैं।
(श्लोक २२०-२२६) राजा ने आदेश दिया-उसे शीघ्र यहां ले प्रायो, ताकि वह अपने मन की बात कह सके ।
(श्लोक २२७) राजा की आज्ञा से छड़ीदार उसे राजसभा में ले आया। बुध जिस प्रकार सूर्यमण्डल में प्रवेश करता है उसी भांति उसने राजसभा में प्रवेश किया। रिक्त हस्त से राजा के दर्शन नहीं करना चाहिए, माली की तरह राजा को एक पुष्पमाल भेंट दी। तदुपरान्त छड़ीदार के बताए हुए प्रासन पर करबद्ध होकर बैठ गया।
.. (श्लोक २२८-२३०) तब राजा ने नेत्र विस्फारित एवं हास्य से प्रोष्ठ प्रसारित करते हुए पूछा-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार वर्गों में तुम किस वर्ण के हो ? आँम्बष्ठ और मगधादि देशों में तुम किस देश