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सभी दक्षिण भरतार्द्ध के स्वामी, महापराक्रमी और इन्द्र प्रदत्त भगवान् के मुकुट को धारण करने वाले थे। इस प्रकार वे लोकोत्तर पराक्रम में देव और दानवों को जय करने में समर्थ थे। वे सभी दैवयोग से इसी वंश में जन्मे थे फिर भी सब मृत्यु को प्राप्त हुए। इनके पश्चात् भी असंख्य महापराक्रमी राजा हुए थे । वे सभी मृत्यु को प्राप्त हुए थे। कारण, काल निश्चय ही दुरतिक्रम्य है।
(श्लोक ११६-१३६) ब्राह्मण, मृत्यु पीछे से अपयश-कारी की तरह सबको अनिष्टकारी, अग्नि की तरह सबको दग्धकारी, जल की तरह सबको भेदनकारी है । मेरे घर में भी मेरे कोई भी पूर्व पुरुष मृत्यु से नहीं बच सके तब मैं अन्य की तो बात ही क्या कहूं। अतः देवी ने जैसा कहा है वैसा मंगलघर पापको कहाँ मिलेगा? जो मृत्यु सभी के लिए सामान्य है उसके लिए आप क्यों शोक करते हैं ? बालक हो या वृद्ध, दरिद्र हो या चक्रवर्ती मृत्यु सभी के लिए एक-सी है। संसार का यही स्वभाव है कि इसमें जल-तरंगों की भांति एवं शरदकाल के मेघ की भाँति कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। इसके अतिरिक्त इस संसार में माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्रवध प्रादि जो सम्बन्ध हैं वे पारमार्थिक नहीं हैं, ग्राम की धर्मशाला में जिस प्रकार पथिक भिन्न-भिन्न दिशाओं से प्राकर मिलते हैं उसी प्रकार कोई कहीं से तो कोई कहीं से आकर संसार के एक घर में एकत्र होते हैं। फिर वे सभी अपने-अपने कर्मों के परिणामानुसार भिन्न-भिन्न दिशात्रों में चले जाते हैं। अतः कोई भी सुबुद्धिवान मनुष्य इसके लिए शोक नहीं करते । हे द्विजोत्तम, इसलिए आप मोह के चिह्न रूप जो शोक है उसका परित्याग कर धैर्य धारण करें। हे महासत्त्व, अपने हृदय में विवेक को जाग्रत करें।
(श्लोक १३७-१४५) ब्राह्मण बोला-हे राजन्, मैं संसार के प्राणीमात्र के स्वभाव को भलीभांति जानता हूं, किन्तु पुत्र-शोक में आज वह सब भूल गया हूं। कारण जब तक मनुष्य को इष्ट-वियोग का अनुभव नहीं होता तभी तक सब कुछ जानते हैं और धैर्य रखते हैं । हे स्वामी, सर्वदा अर्हतों के आदेश का अमृतपान कर जिनका चित्त निर्मल हो गया है ऐसे आप जैसे धैर्यधारी और विवेकी पुरुष तो कम ही होते हैं। हे विवेकी, मुझ मोहग्रस्त को आपने जो उपदेश