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दिया वह उत्तम है; किन्तु यही विवेक अब आपको स्व श्रात्मा के लिए धारण करना उचित है । कष्ट उपस्थित होने पर मोहादि द्वारा आच्छन्न श्रात्मा रक्षणीय है । इसीलिए अस्त्र धारण किया जाता है ताकि संकट के समय वह काम आए। उसका व्यवहार सब समय नहीं होता । यह काल तो दरिद्र और चक्रवर्ती सभी के लिए समान है । यह किसी के भी प्राणों को या पुत्र को हरण करने में भयभीत नहीं होता । जिनके कम सन्तान होती है उनकी कम सन्तान मरती हैं। जिनके अधिक सन्तान होती है उनकी अधिक सन्तान मरती है; किन्तु वेदना तो सभी को उसी प्रकार समान ही होती है जिस प्रकार चींटी या हाथी को कम या अधिक प्रहार से होती है । जिस प्रकार मैं अपने एक पुत्र के लिए शोक नहीं करूँ उसी प्रकार प्राप भी अपने सभी पुत्रों की मृत्यु के लिए शोक नहीं करें । राजन्, भुज पराक्रम से सुशोभित प्रापके साठ हजार पुत्र काल योग से एक साथ मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं ।
( श्लोक १४६ - १५५) उसी समय राजकुमारों के साथ गए सामन्त, श्रमात्य, सेनापति और कुमारों की सेवा करने वाले सभी सेवक जो कि समीप ही खड़े थे उत्तरीय से अपना मुँह ढके लज्जा से मस्तक नीचा किए दावानल में जले वृक्ष की तरह दुःख-विवर्ण शरीर, पिशाच और किन्नर की तरह अत्यन्त शून्य मन एवं लुण्ठित कृपण की तरह दीन और अश्रु प्रवाहित करते हुए मानो सर्प ने दर्शन किया है इस प्रकार लड़खड़ाते हुए मानो संकेत कर बुलाया हो इस प्रकार सब एक साथ सभा में प्राकर सिर नीचा किए अपनेअपने योग्य आसनों पर बैठ गए ।
( श्लोक १५६-१६०) महावतहीन हस्तियों नेत्र इस प्रकार स्थिर
ब्राह्मण के उन वचनों को सुनकर एवं की तरह लोगों को प्राते देखकर चक्रवर्ती के हो गए मानो वे चित्रलिखित हों या निद्राविष्ट हों या स्तम्भित एवं शून्य हों । अधैर्यवश राजा मूच्छित हो गए । जब उनकी मूर्च्छा टूटी तो ब्राह्मण ने उन्हें बोध देने के लिए पुन: कहा- राजन्, विश्व के मोह की निद्रा नष्ट करने के लिए सूर्य की भाँति ऋषभदेव के प्राप वंशज हैं, भगवान् अजितनाथ के भाई हैं । फिर भी प्राप सामान्य मनुष्य की तरह मोहाविष्ट होकर इन दोनों महात्मानों को क्यों कलङ्कित कर रहे हैं ? ( श्लोक १६२-१६५)