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हम वहाँ न भी जाएं यहीं रहें फिर भी तो यह सब सुनकर लज्जित होकर वे हमें दण्ड देंगे।
(श्लोक २४-३२) इस भाँति नाना प्रकार से विलाप करने के पश्चात् वे सभी एकत्र हुए और अपना स्वाभाविक धैर्य धारण कर इस प्रकार से सोचने लगे-जिस प्रकार प्रथम नियम की अपेक्षा बाद का नियम बलवान होता है उसी प्रकार कर्म सबसे बलवान है। इससे अधिक बलवान कोई नहीं है। जिसका प्रतीकार असम्भव है उसी कार्य के लिए प्रयत्न करने की इच्छा रखना व्यर्थ है। कारण, वह इच्छा प्राकाश को आघात पहुँचाने और हवा को पकड़ने की तरह ही है। अब विलाप करने से क्या होगा? अतः अब वापस लौट जाएँ और हस्ती, अश्व आदि समस्त सम्पत्ति बन्धक रखी हई वस्तु की तरह महाराज को प्रत्यर्पण करें।
(श्लोक ३३-३६) ऐसा विचार कर वे लोग अन्तःपूरिकामों को साथ लेकर दीन मुख से अयोध्या की ओर रवाना हुए। उनमें उत्साह नहीं था। मुख मलिन था। आँखों में ज्योति नहीं थी, मानो सोकर उठे हों वे ऐसे प्रतीत हो रहे थे। वे धीरे-धीरे चलकर अयोध्या के निकट पाए। सब एकत्र होकर नीचे बैठ गए। उनका मन इतना दुःखी था मानो किसी ने उन्हें बध-शिला पर बैठा दिया हो । वे परस्पर इस प्रकार वार्तालाप करने लगे-राजा ने हम लोगों को भक्त, बहुश्रुत, अनुभवी और बलवान समझकर सादर पुत्रों के साथ भेजा था। अब उन पुत्रों के बिना हम राजा के पास कैसे जाएँ ? नासिकारहित पुरुष की तरह अपना यह मुख उन्हें कैसे दिखाएँ ? अकस्मात् वज्रपात-सी उनके पुत्रों के मृत्यु की खबर उन्हें कैसे दें? इससे तो अच्छा है हम उनके पास जाएं ही नहीं, हम लोगों के लिए तो सर्वदुःखशरण मृत्यु ही उचित है। स्वामी ने हमसे जो आशा की थी वह पूर्ण नहीं हुई है अतः व्यर्थ ही जीने से क्या लाभ है ? हो सकता है पुत्रों का हृदय-द्रावक मृत्यु-संवाद सुनकर चक्री के प्राण निकल जाएं। इससे तो यही अच्छा है कि उसके पूर्व ही हम हमारा प्राण-त्याग कर दें। ऐसा सोचकर वे मृत्यु का निर्णय ले रहे थे उसी समय गैरिक वस्त्रधारी एक ब्राह्मण वहाँ पाए ।
(श्लोक ३७-४७) उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने कमल जैसे हाथ ऊचे कर जीवनदायिनी वाणी में प्रात्म-हत्या नहीं करनी चाहिए यह समझाते हुए