________________
[149
कहा-हे किंकर्तव्य-विमूढ़ पुरुषो, पाप अस्थिर चित्त क्यों हो रहे हैं ? आपलोग तो उस खरगोश-सा व्यवहार करते हैं जो शिकारियों को प्राते देखकर ही जमीन पर गिर जाता है । आपके स्वामी के साठ हजार पुत्रों ने युगलियों की तरह मृत्यु वरण की है अब उसके लिए दुःख करने से क्या लाभ ? एक साथ जन्मे हुए कभी-कभी पृथक समय में मरते हैं और कभी-कभी पृथकपृथक स्थानों में जन्मे एक साथ एक ही समय में मरते हैं। एक साथ बहुत से भी मरते हैं, कम भी मरते हैं। कारण मृत्यु तो सबके साथ ही है। जिस प्रकार हजार यत्न करने पर भी प्राणी के स्वभाव को नहीं बदला जा सकता उसी प्रकार कितना ही प्रयत्न क्यों न करें मृत्यु को रोका नहीं जा सकता । यदि मृत्यु को रोका जा सकता तो इन्द्र और चक्रवर्ती ने उसके लिए प्रयत्न अवश्य किया होता । उन्होंने अपने स्व-परिजनों को मृत्यु के हाथों में न जाने दिया होता। आकाश से गिरे वज्र को हाथों में पकड़ा जा सकता है, उद्वेलित समुद्र को बाँध कर उसकी लहरों को रोका जा सकता है, महा भयंकर प्रलयकालीन अग्नि को जल से बुझाया जा सकता है, प्रलयकालीन उत्पात से तीव्र बने पवन को मन्दीभूत किया जा सकता है, पतनोन्मुख पर्वत को टिकाकर रखा जा सकता है; किन्तु मृत्यु को हजार प्रयत्न करने पर भी रोका नहीं जा सकता। अतः आप यह सब सोच-सोचकर दुःख मत करिए कि स्वामी द्वारा हमारे संरक्षण में दिए स्वामीपुत्र इस संसार से चले गए। शोक में निमग्न आपके स्वामी के हाथों को मैं उपदेशप्रद वाक्यों से जकड़कर रखगा। (श्लोक ४८-५९)
इस प्रकार सबको धैर्य बंधाकर उस ब्राह्मण ने राह में पड़े किसी अनाथ की मृतदेह को उठाकर विनीता नगरी में प्रवेश किया और सगर चक्रवर्ती की राज्य सभा के प्रांगण में जाकर हाथ ऊँचाकर उच्च स्वर में बोलने लगा-हे न्यायकारी चक्रवर्ती, हे अखण्डभुज पराक्रमी राजा, आपके इस राज्य में अब्रह्मण्य रूप कर्म हो गया है, अत्याचार हो गया है। स्वर्ग में इन्द्र की तरह इस भरत क्षेत्र में पाप ही रक्षक हैं । फिर भी मैं सर्वशान्त हुप्रा हूं।
(श्लोक ६०-६३) ऐसे अभूतपूर्व वचनों को सुनकर सगर चक्रवर्ती को लगा कि उसका दु:ख उनके मध्य प्रवेश कर गया है। उन्होंने द्वारपालक