________________
146]
षष्ठ सर्ग उस समय चक्री की सेना और योद्धानों के मध्य उसी प्रकार कोलाहल मच गया जिस प्रकार जलाशय के खाली हो जाने पर उसके जल-जन्तुओं में मच जाता है। मानो किम्पाक फल खाया हो, विषपान किया हो या सर्प ने दंशन किया हो इस प्रकार कई मूच्छित होकर गिर पड़े, कई नारियल की भाँति स्व-मस्तक को जमीन पर पटकने लगे, कई मानो वक्ष देश ने अपराध किया हो इस भांति वक्ष पर बार-बार आघात करने लगे, कई दासियों की भाँति किंकर्तव्यविमूढ़-से पैर पटकते हुए जमीन पर बैठ गए, कई बन्दरों की तरह कूदने के लिए पर्वत शिखर पर चढ़े, कई पेट चीरने के लिए यमराज की जिह्वा के समान छरियाँ बाहर निकालने लगे, कई फाँसी पर चढ़ने के लिए, क्रीड़ा के समय जैसे झूले बाँधे जाते हैं उसी प्रकार उत्तरीय वस्त्र को वृक्षों की शाखाओं पर बाँधने लगे, कई खेत से बाहर जिस प्रकार अकुर उखाड़ा जाता है उसी प्रकार सिर के केशों को तोचने लगे, कई स्वेद-बिन्दुओं की तरह शरीर के वस्त्रों को फेंकने लगे, कई पुरानी दीवार कहीं गिर न जाए उसके लिए स्तम्भ का जिस प्रकार सहारा दिया जाता है उसी प्रकार माथे पर हाथ रखकर चिन्ता करने लगे और कई अपने वस्त्रों को भी अच्छी तरह रखे बगैर पागलों की तरह शिथिलांग होकर जमीन पर लोटने लगे।
(श्लोक १-९) उस समय अन्तःपूरिकाएँ भाकाश में जैसे तीतर बिलाप करता है उसी प्रकार विभिन्न प्रकार से हृदय को मथ डालने वाला विलाप करने लमी-हे देव, हमारे प्राणेश्वरों के प्राण लेकर और हमारे प्राणों को छोड़कर ऐसी अर्द्ध-दग्धता आपने क्यों की ? हे पृथ्वी, तुम फट जाप्रो और हमें स्थान दो क्यों कि आकाश से गिरने वालों की तुम्ही धारक हो । हे देव ! चन्दत गोह की तरह मापने आज हम पर निर्दयतापूर्वक प्रकस्मात् वज्रपात किया है। हे प्राण, तुम्हारा पथ सरल हो जाए। अब तुम इच्छानुसार यहाँ से चले जाओ। इस देह को किराये की कुटिया की तरह खाली कर दो। सर्व दुःख दूर करने वाली हे महानिद्रा, तुम जानो। हे गंगा ! तुम उच्छ्वलित होकर हमें जल-मृत्यु दो। हे दावानल, तुम इस जंगल में आविर्भूत हो जानो ताकि तुम्हारी सहायता से