________________
[135
पंचम सर्ग
एक बार देवों द्वारा निरन्तर सेवित भगवान अजितनाथ स्वामी साकेत नगरी के उद्यान में उपस्थित हुए । इन्द्रादि देव और सगरादि राजा यथायोग्य स्थान में आकर उपवेशित हुए । तब वे धर्मोपदेश देने लगे । उसी समय पिता के वध की बात स्मरण कर क्रोधित सहस्रनयन ने वैताढ्य पर्वत पर गरुड़ जिस प्रकार सर्प की हत्या करता है उसी प्रकार निज शत्रु पूर्णमेघ की हत्या कर दी । पूर्णमेघ का पुत्र धनवाहन वहाँ से भागा और शरणागत होने के लिए समवसरण में आया एवं भगवान अजितनाथ की तीन प्रदक्षिणा देकर पथिक जैसे वृक्ष के नीचे बैठता है उसी प्रकार प्रभुचरणों के निकट बैठ गया । उसके पीछे-पीछे हाथ में वस्त्र लिए सहस्रनयन भी यह कहता हुआ आया कि मैं उसे पाताल से खींचकर, स्वर्ग से उठाकर, बलवान की शररण से हटाकर उसकी हत्या करूँगा । जैसे ही उसने धनवाह को समवसरण में बैठे देखा प्रभु प्रताप से उसी मुहूर्त में सहस्रनयन का क्रोध शान्त हो गया । उसने अस्त्र त्याग कर प्रभु की तीन प्रदक्षिणा की और योग्य स्थान में जा कर बैठ गया । इस पर सगर चक्री ने भगवान से पूछाहे प्रभो, पूर्णमेघ और सुलोचन की शत्रुता का क्या कारण है ?
( श्लोक १-९) भगवान नामक अपना समस्त
भगवान ने कहा- बहुत पहले सूर्यपुर नगर में एक कोटिपति वणिक रहता था । एक समय वह द्रव्य स्व-पुत्र हरिदास को सौंपकर वाणिज्य के लिए विदेश गया । वह बारह वर्षों तक विदेश में रहा । तत्पश्चात् खूब धन उपार्जन कर लौट आया और रात्रि में नगर के बाहर रहा । वह अपने आदमियों को वहीं छोड़कर स्वयं रात्रि में ही अपने घर गया क्योंकि उत्कण्ठा बड़ी बलवान होती है । उसके पुत्र हरिदास ने उसे चोर समझकर तलवार से मार डाला । ( श्लोक १०-१४)
अल्पबुद्धि लोग विचार नहीं करते । स्वयं को जिसने मारा पहचानते हुए भी उसके प्रति उसी समय उत्पन्न द्वेष भाव लिए ही वह मर गया । हरिदास ने जब अपने पिता को पहचाना तो अज्ञानकृत उस अयोग्य कार्य के लिए उसके मन में भारी दुःख हुआ। उसने पश्चात्ताप करते हुए पिता का अग्निदाह संस्कार