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किया । कुछ दिनों बाद हरिदास भी मर गया । इस बार उन दोनों ने ही बड़ा दुःखदायक जन्म व्यतीत किया । इस जन्म के पश्चात् सुकृत के योग से भगवान् पूर्णमेघ के रूप में और हरिदास सुलोचन के रूप में जन्मे । इस भाँति हे राजन्, पूर्णमेघ और सुलोचन का प्राणान्तिक वैर पूर्व जन्म से ही चला ना रहा है । फिर इस जन्म में तो कारण उत्पन्न होने के कारण वैर हुआ है । ( श्लोक १५-१९ ) सगय राजा ने पुनः पूछा- इन दोनों के पुत्रों के मध्य वैर का कारण क्या है ? इस सहस्रनयन के क्यों जागृत हो रहा है ?
प्रेम भाव
( श्लोक २० )
शशि और प्रावली
अजितनाथ स्वामी ने प्रत्युत्तर दिया- कई जन्म पूर्व तुम रम्भक नामक संन्यासी थे । उस समय तुम्हारे नामक दो शिष्य थे । उनमें श्रावली नामक शिष्य नम्र होने के कारण तुम्हें अत्यन्त प्रिय था । एक दिन उसने गाय खरीदने के लिए बातचीत तय की। इसी मध्य कठोरहृदय शशि वहां आया । उसने गाय के मालिक को अपनी ओर कर गाय स्वयं खरीद ली। इससे दोनों में झगड़ा हुआ । खूब केशाकेशी, मुक्कामुक्की, लाठी- लठौवल हुई । अन्तत: शशि ने आवली को मार डाला । अनेक जन्मों में परिभ्रमण करने के पश्चात् शशि धनवाहन और आवली सहस्रनयन हुआ । इन दोनों के वैर का मात्र यही कारण है । दान के प्रभाव से अच्छी गतियों में परिभ्रमण करते हुए रम्भक के जीव तुम इस जन्म में चक्रवर्ती बने हो । सहस्रनयन के प्रति तुम्हारा स्नेह पूर्व जन्म से ही चला श्रा रहा है ।
(श्लोक २१-२६) उसी समय समवसरण में भीम नामक राक्षसपति बैठा था । उसने द्रुतगति से आकर धनवाहन का आलिंगन किया और बोलापुष्करवर द्वीप में भरत क्षेत्र के वैताढ्य पर्वत पर कांचनपुर नामक नगर में मैं विद्युतदंष्ट्र नामक राजा था । उस जन्म में तुम रतिवल्लभ नामक मेरे पुत्र थे । हे वत्स, तुम मुझे बहुत प्रिय थे । अच्छा हुआ आज तुमसे साक्षात्कार हुआ । इस समय भी तुम मेरे पुत्र हो । अतः मेरी सेना और जो कुछ भी मेरा है । उसे ग्रहण करो । लवण समुद्र में देवताओं के लिए भी अजेय सर्व दिशाओं
लिए मेरे मन
में
सात सौ योजन विस्तारयुक्त, समस्त द्वीपों में श्रेष्ठ राक्षस नामक एक द्वीप है । उस द्वीप के मध्य भाग में पृथ्वी की नाभि मेरु