SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [127 प्रणिपात तक ही महात्मात्रों का क्रोध रहता है। चक्रवर्ती ने उपहार ग्रहण किए और कहा-उत्तर भारतार्द्ध के सामन्तों की भांति तुम भी कर दो और सेवक होकर रहो। उनके स्वीकार कर लेने पर चक्री ने उन्हें विदा दी और स्व-सेनापति को सिन्धू का पश्चिम भाग जय करने की प्राज्ञा दी। (श्लोक २४१-२४२) उन्होंने पूर्व की भांति चर्मरत्न से सिन्धु नदी पार कर हिमवन्त पर्वत और लवण समुद्र में स्थित सिन्धु के पश्चिम भाग को जीत लिया। प्रबल पराक्रमी दण्ड धारण करने वाले सेनापति म्लेच्छों से कर लेकर जल भरे मेघ की भांति सगर चक्री के निकट पाए। विविध प्रकार के भोग-उपभोग करते हुए अनेक राजाओं द्वारा पूजित होते हुए चक्रवर्ती बहुत दिनों तक वहां रहे । पराक्रमी पुरुषों के लिए कोई भी स्थान विदेश नहीं होता। (श्लोक २४३-२४५) एक दिन ग्रीष्म ऋतु के सूर्य-बिम्ब की तरह चक्ररत्न प्रायूधशाला से निकलकर पूर्व के मध्य भाग की ओर चलने लगा। चक्र के पीछे चलते हुए महाराज क्षुद्र हिमालय के दक्षिण नितम्ब के निकट पाए और वहां छावनी डाली। उन्होंने क्षुद्र हिमालय नामक देव को स्मरण कर अष्टम तप किया और वे पौषधशाला में पौषध व्रत ग्रहण कर अवस्थित हुए। तीन दिनों के पौषध के अन्त में वे रथ पर आरूढ़ होकर हिमालय पर्वत के निकट पाए । हस्ती जिस प्रकार दांत से प्रहार करता है उसी प्रकार उन्होंने रथ के अग्रभाग से पर्वत पर तीन बार आघात किया । चक्री ने वहां रथ के घोड़े को रोककर धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई एवं निज नामाङ्कित तीर को निक्षेप किया। वह तीर मानो एक कोश की दूरी पर ही गिरा हो इस भांति बहत्तर योजन दूर स्थित क्षुद्र हिमालय देव के सम्मुख जाकर गिरा। तीर गिरते देखकर देव क्षणमात्र के लिए तो क्रोध से कांप उठे; किन्तु ज्योंही तीर पर लिखित नाम को पढ़ा त्योंही शान्त हो गए । तत्पश्चात् गो-शीर्ष चन्दन, सव प्रकार की औषधियां, पद्महृद का जल, देवदूष्य वस्त्र, तीर, रत्नों के अलङ्कार और कल्पवृक्ष को पुष्पमाला प्रादि प्राकाश में अवस्थित रहकर चक्रवर्ती को भेंट किए और उनकी सेवा स्वीकार की। 'चक्रवर्ती की जय हो' शब्द उच्चारित करते हुए उन्होंने चक्री को सम्वद्धित किया। (श्लोक २४६-२५४)
SR No.090514
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rajkumari Bengani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy