________________
[125
कर डाला ।
को विनष्ट कर दिया, अनेकों को पीस डाला, अनेकों को भूमिसात ( श्लोक २०३ - २०७) सेनापति द्वारा प्रताड़ित किरातगरण कमजोर होकर पवन द्वारा प्रताड़ित रुई की तरह अनेक योजन दूर भाग गए । वे सिन्धु नदी के तट पर एकत्र हुए और बालू पर निर्वस्त्र होकर बैठ गए । अत्यन्त दुःखी होकर उन्होंने अपने कुलदेव मेघकुमार और नागकुमार के प्राह्वान के उद्देश्य से प्रष्टम भक्त तप किया । तप के अन्त में उन देवों के प्रासन कम्पित हुए । उन्होंने अवधिज्ञान से मानो सम्मुख ही देख रहे हैं इस भाँति किरातों की दुर्दशा देखी । उनकी दुर्दशा से दुःखित होकर पिता की भाँति मेघकुमार देव उनके निकट आए और आकाश में अवस्थित रहकर बोले - हे वत्सगरण, तुम्हारी इस दुर्दशा का क्या कारण है ? मुझे बताओ, ताकि मैं उसका प्रतीकार कर सक । (श्लोक २०८-२१३) किरात बोले- हमारा देश ऐसा है जहां बहुत कष्ट और कठिनाई के पश्चात् ही कोई प्रवेश कर सकता है; किन्तु समुद्र में बड़वाल की भांति किसी ने यहां प्रवेश किया है। उनसे पराजित होकर हम आपकी शरण में आए हैं । आप ऐसा कुछ करिए जिससे जो आए हैं वे चले जाए और फिर नहीं लौटें । ( श्लोक २१४ - २१५ ) देवताओं ने कहा- जैसे पतंगा अग्नि को नहीं पहचानता वैसे ही तुम लोग भी उन्हें नहीं जानते । ये महापराक्रमी सगर नामक चक्रवर्ती हैं । इन्हें सुर-असुर कोई भी पराजित नहीं कर सकता । इनकी शक्ति इन्द्र के समान है । ये अग्नि, मन्त्र, विष, जल प्रौर तन्त्र - विद्या के लिए अगोचर हैं अर्थात् कोई भी उन पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता । वज्र से उनका कोई भी अनिष्ट नहीं कर सकता । इसलिए तुम लोगों के प्रयास का भी उतना ही फल
होगा जितना मच्छरों के उपद्रवों का हाथी पर होगा ।
( श्लोक २१६-२१९)
अदृश्य हो गए और
उन्होंने घन अन्धकार
तदुपरान्त वे मेघकुमार देव वहां से
।
उन्होंने चक्रवर्ती की सेना पर आफत ढायी से दिक्-समूहों को इस भांति भर डाला जिससे जन्मान्ध मनुष्य की भांति वे किसी को भी देख नहीं पाए । फिर उन्होंने सात दिन, सात रात चक्रवर्ती की छावनी पर मूसलाधार वृष्टि की । प्रलयकाल की भांति उस भीषण वर्षा को देखकर चक्रवर्ती ने अपने हस्त-कमल