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रहती है और निमग्ना नदी में फेंका तूम्बी का खोल भी डूब जाता है । वर्द्धकी रत्न ने उसी मुहूर्त में उन पर एक सेतु का निर्माण किया और चक्रवर्ती ने समस्त सैन्य सहित घर के एक जल प्रवाह की भांति उन नदियों को पार किया । क्रमशः वे तमिस्रा के उत्तर द्वार पर आए । उसका दरवाजा कमल-कोश की भाँति स्वतः ही खुल पड़ा। हस्ती पर श्रारूढ़ चक्रवर्ती सूर्य जैसे मेघ से निकलता है उसी प्रकार सपरिवार गुहा से बाहर श्राए । ( श्लोक १७७ - १९५) जिनका पतन दुःखदायक है ऐसे भुजबल से उद्धत प्रापात जाति के भीलों ने सागर की तरह सगर चक्रवर्ती को आते हुए देखा । स्व-अस्त्रों के प्रकाश से चकी सूर्य का भी तिरस्कार कर रहे थे, पृथ्वी की धूल से खेचर स्त्रियों की दृष्टि को प्राच्छन्न कर रहे थे, सैन्य भार से पृथ्वी को कम्पित कर रहे थे और तुमुल शब्दों से प्रकाश और पृथ्वी को वधिर कर रहे थे । वे मानो असमय में पर्दे से बाहर आए हों, आकाश से नीचे उतरे हों, पाताल से ऊँचे उठे हों, ऐसे प्रतीत हो रहे थे । वे अगणित सैन्य से गहन और अग्रगामी चकू से भयङ्कर लग रहे थे । ऐसे चकी को आते देखकर वे कोध र हास्य- परिहास में परस्पर इस प्रकार बातचीत करने लगे । ( श्लोक १९६- २०० )
हे पराक्रमी पुरुषो, अप्रार्थितों के लिए प्रार्थनाकारी ( मृत्यु श्चभिलाषी) लक्ष्मी, लज्जा, बुद्धि और कीर्तिवर्जित, सुलक्षणरहित, स्व- श्रात्मा को वीर कहने वाला और अभिमान में अन्ध यह कौन श्रया है ? और यह कैसी अफसोस की बात है कि बैल केशरी सिंह के अधिष्ठित स्थान में प्रवेश कर रहा है । ( श्लोक २०१ - २०२ ) फिर वह म्लेच्छ पराक्रमी राजा चक्रवर्ती की सना के अग्र - भाग को इस प्रकार उत्पीड़ित करने लगा जैसे असुर इन्द्र को उत्पीड़ित करता है । अल्प क्षणों के मध्य ही सेना के अग्रभाग के हस्ती भागने लगे । अश्व विनष्ट होने लगे, रथों की धुरियाँ भग्न हो गयीं और सारी सेना परावर्तन भाव को प्राप्त हुई अर्थात् छिन्नभिन्न हो गई । भीलों द्वारा सेना को विनष्ट होते देख चक्रवर्ती के सेनापति ने क्रुद्ध होकर सूर्य की तरह अश्वरत्न पर चढ़कर नवोदित धूमकेतु की तरह खड्ग निष्कासित कर भीलों पर आक्रमण किया । हस्ती जिस प्रकार वृक्ष को नष्ट करता है उसी प्रकार उन्होंने अनेकों