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ने धनुष और समुद्र की तरह बहत दूर तक विस्तृत होने में समर्थ चर्मरत्न को ग्रहण किया। उन्होंने दण्डरत्न ऊँचा किया, इससे वे इस प्रकार शोभित हुए जिस प्रकार पुण्डरीक कमल से सरोवर शोभित होता है। दोनों ओर वीजे जाने वाले चँवरों से वे ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो वे शरीर में चन्दन तिलक अंकित कर रहे हैं । वाद्यों के शब्दों से वे आकाश को इस प्रकार गुञ्जित कर रहे थे जिस प्रकार वह मेघगर्जना से गुञ्जित होता है । इस प्रकार तैयार होकर सेनापति सिन्धु नदी के प्रवाह के निकट पाए। उन्होंने हाथ से चर्मरत्न का स्पर्श किया। जिससे फैलकर उसने जहाज का रूप धारण कर लिया। चर्मरत्न पर सैन्य सहित प्रारोहण कर सेनापति ने सिन्धु नदी का अतिकम किया। लौह स्तम्भ से प्राबद्ध उन्मत्त हस्ती जिस प्रकार स्तम्भ से छूटता है उसी प्रकार महाबलवान् सेनापति सैन्य सहित सिन्धू प्रवाह का अतिक्रम कर चारों ओर बिखर गए। उन्होंने सिंहल जाति के, बर्बर जाति के, ढेकन जाति के और अन्य म्लेच्छ जाति के एवं यवनों के द्वीपों में जाकर उन पर आक्रमण किया। कालमुख जोनक और वैताढय पर्वत के मूल में अवस्थित अनेक म्लेच्छ जातियों से उन्होंने स्वच्छन्द रूप से कर ग्रहण किया। समस्त देशों में श्रेष्ठ कच्छ देश को उन्होंने वृहद् वृषभ की तरह वशीभूत कर लिया। वहाँ से लौटकर समस्त म्लेच्छों पर विजय प्राप्त हो जाने से वहां की समतल भूमि पर जलक्रीड़ा कर बाहर आने वाले हाथी की तरह अवस्थान किया। म्लेच्छों के मण्डप, नगर और ग्राम अधिपतिगण तब इस भाँति
आकृष्ट होकर उनके पास आए, जाल में प्राबद्ध प्राणी आकर्षित होकर जिस प्रकार पाते हैं। विभिन्न प्रकार के अलङ्कार, रत्न, सोना-चाँदी, हाथी-घोड़ा, रथ और अन्य अनेक उत्तम पदार्थ जो उनके पास थे लाकर उन्होंने सेनापति को इस भाँति उपहार दिए जिस प्रकार बन्धक रखी वस्तु को लोग लौटा देते हैं। फिर वे सेनापति से बोले-हम आपके वशीभूत होकर कर देने वाले भत्य की तरह रहेंगे।
(श्लोक १५३-१७३) उपहार स्वीकार उन्हें विदा देने के पश्चात् सेनापति रत्न चर्मरत्न के ही द्वारा सिन्धु नदी पार होकर चक्रवर्ती के सम्मुख उपस्थित हुए और समस्त उपहार उन्हें समर्पित किए। कहा भी गया है-स्व-भक्ति के कारण बलवानों को लक्ष्मी दासी की भाँति