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कार्य कार्य के ज्ञाता एवं सार-प्रसार का अनुसन्धान करने वाले उन राजा के मन में एक दिन संसार से वैराग्य हो गया । अतः वे सोचने लगे - प्रोह ! लक्ष योनि रूप महान् श्रावर्त्त में पतन के क्लेश से भयंकर इस संसार समुद्र को धिक्कार है। फिर भी दुःख तो यह है कि इस संसार में स्वप्न जाल को तरह क्षरण उत्पन्न क्षण विनष्ट पदार्थ में समस्त प्राणी विमोहित हैं। यौवन पवनआन्दोलित पताका की भाँति चंचल है और आयु पत्र स्थिति जल बिन्दु की तरह नाशवान है । इस आयु का कितना ही समय तो गर्भावास की तरह दुःख में व्यतीत होता है । उस स्थिति का तो एक मास भी पल्योपम की भांति दीर्घ लगता है । जन्म होने के पश्चात् प्रायु का बहुत हिस्सा बाल्यकाल में अन्धे की तरह पराधीनता में बीतता है । यौवन में इसी प्रकार इन्द्रियों को श्रानन्दकारी स्वादिष्ट पदार्थों के उपभोग में उन्मत्त की तरह व्यर्थ ही नष्ट होता है और वृद्धावस्था में त्रिवर्ग ( धर्म, अर्थ और काम) के सेवन में अशक्त जीव की शेष आयु निद्रित मनुष्य की भाँति व्यर्थ चली जाती है । विषय स्वाद में लम्पट बना मनुष्य रोगी की तरह ही रोग से कम्पित होता है । यह जानते हुए भी संसारी जीव संसार भ्रमरण का ही प्रयास करता है । मनुष्य यदि यौवन में जिस प्रकार विषय सेवन का यत्न करता है उस प्रकार ही यदि मुक्ति के लिए प्रयत्न करता तो उसे प्रभाव रहता ही कहाँ ? मकड़े जिस प्रकार स्व लार से बने जाल में आबद्ध होते हैं उसी प्रकार जीव भी स्वकर्म जाल में प्राबद्ध हो जाता हैं । समुद्र में युगशमिला प्रवेश न्याय की तरह जीव पुण्य योग से बहुत परिश्रम करने के पश्चात् मनुष्य जन्म प्राप्त करता है । उस पर भी श्रार्य देश में जन्म, उच्च कुल की प्राप्ति और गुरु सेवा रूपी कष्टप्राप्त साधन पाकर भी स्वकल्याण का प्रयास नहीं करता । उसकी अवस्था भोजन पक जाने के पश्चात् भी भूखा रह जाने वाले मानव जैसी है । ऊर्ध्वगति ( स्वर्गादि) और अधोगति ( नरकादि) पाना अपने ही वश में होता । फिर भी जड़ बुद्धि सम्पन्न जीव जल की तरह नीचे की तरफ ही जाता है । जब समय आएगा तब धर्म ध्यान करूंगा ऐसा विचार करने वाले जीव को यमदूत इस प्रकार पकड़ कर ले जाते हैं जिस प्रकार भरण्य में चोर डाकू प्रसहाय मनुष्य को पकड़ ले जाते हैं । जिस परिवार का पापकर्म करके भी पालन-पोषण करता