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यदि कोई कहे जैन धर्म अप्रामाणिक है तो वह विशेष पापी है; किया वह मूर्ख मनुष्य भी नहीं करता । इसलिए हे प्रार्यपुत्र, प्रागे कभी ऐसा कार्य मत करना । ऐसा कहकर वह ब्राह्मणी पति को सम्यक्त्व में स्थिर करने के लिए मेरे पास ले आई थी। इसी विषय में इस ब्राह्मण ने मुझसे प्रश्न किया था । मैंने भी इसीलिए उत्तर दिया था कि यह सम्यक्त्व का ही प्रभाव है। (श्लोक ९२६-९३४)
भगवान् के उस वाक्य को सुनकर अनेक प्राणी प्रतिबोधित होकर धर्म में स्थिर हुए। शुद्धभट ब्राह्मणी सहित भगवान् से दीक्षित हुए और अनुक्रम से दोनों को ही केवल ज्ञान हुआ ।
(श्लोक ९३५-९३६)
"जगत् पर अनुग्रह करने में तल्लीन और चक्री की तरह sairat चक्र से सुशोभित भगवान् श्रजितनाथ स्वामी ने देशना समाप्त कर वहाँ से प्रस्थान किया और पृथ्वी पर विचरने लगे । ( श्लोक ९३७)
'तृतीय सर्ग समाप्त
चतुर्थ सर्ग:
उधर सगर राजा की प्रायुधशाला में सुदर्शन नामक चक्ररत्न उत्पन्न हुआ था । उस चक्र की बेड़ सोने की थी और उसके श्रर लोहिताक्ष रत्नों से व विचित्र माणिक्य घण्टिकानों से शोभित थे । वह चक्र नन्दीघोष सहित था । निर्मल मुक्ताओं से वह सुन्दर लग रहा था । उसकी नाभि वज्र - रत्नमय थी । घुंघरू की पंक्तियों से वह मनोहर लग रहा था एवं समस्त ऋतुनों के फूलों से वह चर्चित था । उस पर चन्दन का लेप किया हुआ था। एक हजार देव उसके अधिष्ठाता थे । वह शून्य में अवस्थित था । ( श्लोक १-४) मानो सूर्यमण्डल हो ऐसे ज्वालामयी किरणों से भयंकर उस च को प्रकट होते देखकर शस्त्रागार के अधिकारी ने उसे नमस्कार किया। फिर विचित्र पुष्पमालानों से उसकी पूजा कर श्रानन्द चित्त से यह समाचार सगर राजा को दिया । यह सुनकर गुरु के दर्शन की तरह राजा सगर सिंहासन, पादपीठ और पादुका का उसी क्षण परित्याग कर मन ही मन चक्ररत्न का ध्यान कर कुछ कदम लागे