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________________ 112] यदि कोई कहे जैन धर्म अप्रामाणिक है तो वह विशेष पापी है; किया वह मूर्ख मनुष्य भी नहीं करता । इसलिए हे प्रार्यपुत्र, प्रागे कभी ऐसा कार्य मत करना । ऐसा कहकर वह ब्राह्मणी पति को सम्यक्त्व में स्थिर करने के लिए मेरे पास ले आई थी। इसी विषय में इस ब्राह्मण ने मुझसे प्रश्न किया था । मैंने भी इसीलिए उत्तर दिया था कि यह सम्यक्त्व का ही प्रभाव है। (श्लोक ९२६-९३४) भगवान् के उस वाक्य को सुनकर अनेक प्राणी प्रतिबोधित होकर धर्म में स्थिर हुए। शुद्धभट ब्राह्मणी सहित भगवान् से दीक्षित हुए और अनुक्रम से दोनों को ही केवल ज्ञान हुआ । (श्लोक ९३५-९३६) "जगत् पर अनुग्रह करने में तल्लीन और चक्री की तरह sairat चक्र से सुशोभित भगवान् श्रजितनाथ स्वामी ने देशना समाप्त कर वहाँ से प्रस्थान किया और पृथ्वी पर विचरने लगे । ( श्लोक ९३७) 'तृतीय सर्ग समाप्त चतुर्थ सर्ग: उधर सगर राजा की प्रायुधशाला में सुदर्शन नामक चक्ररत्न उत्पन्न हुआ था । उस चक्र की बेड़ सोने की थी और उसके श्रर लोहिताक्ष रत्नों से व विचित्र माणिक्य घण्टिकानों से शोभित थे । वह चक्र नन्दीघोष सहित था । निर्मल मुक्ताओं से वह सुन्दर लग रहा था । उसकी नाभि वज्र - रत्नमय थी । घुंघरू की पंक्तियों से वह मनोहर लग रहा था एवं समस्त ऋतुनों के फूलों से वह चर्चित था । उस पर चन्दन का लेप किया हुआ था। एक हजार देव उसके अधिष्ठाता थे । वह शून्य में अवस्थित था । ( श्लोक १-४) मानो सूर्यमण्डल हो ऐसे ज्वालामयी किरणों से भयंकर उस च को प्रकट होते देखकर शस्त्रागार के अधिकारी ने उसे नमस्कार किया। फिर विचित्र पुष्पमालानों से उसकी पूजा कर श्रानन्द चित्त से यह समाचार सगर राजा को दिया । यह सुनकर गुरु के दर्शन की तरह राजा सगर सिंहासन, पादपीठ और पादुका का उसी क्षण परित्याग कर मन ही मन चक्ररत्न का ध्यान कर कुछ कदम लागे
SR No.090514
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rajkumari Bengani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size16 MB
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