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दर्शन, चरित्र यदि मोक्ष मार्ग नहीं है और संसार में यदि ऐसा सम्यक्त्व नहीं है तो मेरा यह पुत्र अग्नि में जलकर मर जाए, मौर यदि मैंने जो कुछ कहा वह सत्य है तो यह प्रज्वलित अग्नि मेरे पुत्र के लिए शीतल हो जाए । ( श्लोक ९१५ - ९१८) ऐसा कहकर क्रोध से मानो द्वितीय अग्नि ही हो उस साहसी ब्राह्मण ने अपने पुत्र को प्रज्वलित अग्नि में फेंक दिया। तब अरे रे इस अनार्य ब्राह्मण ने अपने पुत्र को जलाकर मार डाला । ऐसे क्रोध भरी उक्ति से ब्राह्मण पर्षदा ने उसका तिरस्कार किया । ( श्लोक ९१९ - ९२०)
वहां कोई सम्यक् दर्शनधारिणी देवी निवास करती थी । उसने बालक को भंवरे की तरह कमल के मध्य पकड़ लिया और ज्वालामयी अग्नि को दाहशक्ति को हररण कर लिया । इस प्रकार उसके पुत्र को मानो चित्रस्थ हो ऐसा बना दिया । उस देवी ने पूर्व के मनुष्य भव में संयम का विरोध किया था इसलिए मरकर व्यंतरी रूप में जन्म-ग्रहण किया था । उसने किसी केवली को पूछा थामुझे सम्यक्त्व की प्राप्ति कब होगी ? केवली ने कहा - हे अनघे, तुम सुलभबोधि होगी; किन्तु सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए तुम्हें सम्यक्त्व भावना से भली भांति उद्योगी होना होगा । उस वाक्य को उसने माला की तरह हृदय में धारण कर रखा था के महत्त्व को बढ़ाने के लिए ब्राह्मण पुत्र की
।
अतः उसने सम्यक्त्व
रक्षा की ।
ने
( श्लोक ९२१ - ९२५)
इस प्रकार जैन धर्म का प्रत्यक्ष प्रभाव देखकर ब्राह्मणों की आँखें आश्चर्य से फैल गयीं । उन्होंने ब्राह्मण जन्म में ऐसी अदृष्टपूर्ण घटना इसके पूर्व नहीं देखी थी । शुद्धभट ने अपनी स्त्री को यह बात सुनाई व सम्यक्त्व के प्रकट प्रभाव को देखकर प्रानन्दित हुआ; किन्तु विपुला साध्वी के प्रगाढ़ सम्पर्क में रहने के कारण ब्राह्मणी को विवेक उत्पन्न हो गया था । उसने कहा- तुम्हें धिक्कार है ! यह तुमने क्या किया ? सम्यक्त्व भक्त कोई देव निकट ही था इसीलिए तुम्हारा मुख उज्ज्वल हुआ; किन्तु यह तुम्हारे क्रोध का चांचल्य मात्र है । यदि उस समय सम्यक्त्व के प्रभाव को प्रकट करने वाला कोई देव निकट नहीं रहता तो तुम्हारा पुत्र जलकर मर जाता और लोगों में जैन धर्म की निन्दा होती। यद्यपि वैसा भी होता तब भी जैन धर्म अप्रामाणित नहीं होता। इस प्रसंग में