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सम्पन्न सौभाग्ययुक्त-शरद्कालीन चन्द्र की तरह प्रभावशाली और पुष्पमाल्य और वस्त्रालङ्कारों से विभूषित शरीर प्राप्त करते हैं । विशिष्ट वीर्य बोधाढ्य ( अर्थात् असामान्य ज्ञान और शक्ति के के धारक), कामार्तिज्वर रहित, अन्तराय रहित अतुल्य सुखों का चिरकाल तक सेवन करते हैं । इच्छानुरूप प्राप्त सर्वार्थ मनोहर सुख रूप अमृत उपभोग विघ्न रहित भाव से करने के कारण वे यह भी नहीं समझते हैं कि उनकी प्रायु किस प्रकार व्यतीत हो रही है । ऐसे दिव्य भोग सेवन करने के पश्चात् वे वहाँ से च्युत होकर मनुष्य लोक में उत्तम देहधारी बनकर जन्म ग्रहण करते हैं । मनुष्य लोक में भी वे दिव्य कुल में जन्म ग्रहण करते हैं । उनके सारे मनोरथ पूर्ण होते हैं । वे नित्य उत्सव पालन करते हैं और मन को आनन्दकारी विविध प्रकार के भोग - उपभोग करते हैं तदुपरान्त विवेक का प्राश्रय लेकर समस्त भोगों का परित्याग कर शुभ ध्यान द्वारा कमस्त सर्मक्षय कर अव्यय पद अर्थात् मोक्ष प्राप्त करते हैं । ( श्लोक ८०१ - ८१० ) इस प्रकार समस्त जीवों के हितकारी श्री अजितनाथ प्रभु तीन जगतरूपी कुमुद को प्रानन्दित करने वाला कौमुदी रूप धर्मोपदेश दिया । स्वामी का उपदेश सुनकर हजारों नर-नारियों को ज्ञान प्राप्त हुआ और मोक्ष की माता रूप दीक्षा ग्रहण की। (श्लोक ८११ - ८१३) उस समय सगर चक्रवर्ती के पिता वसुमित्र जो कि यति बनकर घर में अवस्थित थे प्रभु से दीक्षा ग्रहण की। फिर अजित नाथ स्वामी ने गणधर नाम कर्म सम्पन्न सुबुद्धि सिंहसेन श्रादि पंचानवे मुनियों को व्याकरण के प्रत्याहार की तरह उत्पत्ति, नाश और ध्रौव्यरूप त्रिपदी सुनायी । रेखा के सहारे जिस प्रकार चित्र अंकित होता है उसी प्रकार त्रिपदी के श्राधार पर गणधरों ने चौदह पूर्व सहित द्वादशांगी की रचना की । फिर इन्द्र स्व स्थान से उठकर वासक्षेप पूर्ण थाल लेकर देव समूह सहित स्वामी के चरण-कमलों के निकट आकर खड़े हो गए । जगत्पति अजितनाथ स्वामी ने खड़ े होकर गणधरों के मस्तक पर वासक्षेप किया और अनुक्रम से, सूत्र से, सूत्रार्थ से इसी प्रकार द्रव्य से, गुण से, पर्याय से श्रौर नय से अनुयोग की अनुज्ञा और गरण की आज्ञा दी । फिर देव, मनुष्य और स्त्रियों ने दुन्दुभि ध्वनि सहित गरणधरों