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[105 पर वास-क्षेप निक्षेप की। गणधर भी युक्त कर होकर अमृत निर्भर तुल्य प्रभु की वाणी सुनने के लिए प्रस्तुत हुए। प्रतः पूर्वाभिमुखी सिंहासन पर बैठकर प्रभु ने उन्हें अनुशिष्टिमय देशना दी। प्रथम प्रहर समाप्त होने पर भगवान ने धर्मदेशना बन्द की । उसी समय सगर राजा द्वारा प्रस्तुत बड़े थाल में रखे चार प्रस्थ वजन की 'बलि' पूर्व द्वार से समवसरण में लायी गयी। (श्लोक ८१४-८२७) - यह बलि शुद्ध और कमल के समान सुगन्ध पूर्ण चावल से उत्तम रूप से बनायी गयी थी। देवताओं द्वारा प्रक्षिप्त गन्ध मुष्ठि से उसकी सुगन्ध फैल रही थी। श्रेष्ठ पुरुष उसे वहन कर रहे थे। साथ-साथ चलने वाली दुन्दुभि के शब्द से दिशाएं प्रतिध्वनित हो रही थीं। स्त्रियां गाती हुई उसके पीछे चल रही थीं। जिस प्रकार भंवरों से कमल-कोश. परिवृत होता है उसी प्रकार नगर अधिवासियों द्वारा वह परिवत था। फिर उन्होंने प्रभु की प्रदक्षिणा देकर जिस प्रकार देवतानों ने पुष्पवृष्टि की थी उसी प्रकार बलि को प्रभु के सम्मुख उछाला। उसका अर्द्धभाग धरती पर नहीं गिरने देकर ऊपर ही ऊपर देवों ने ग्रहण कर लिया। धरती पर गिरे हए अर्द्धभाग को राजा सगर ने ग्रहण किया। उस बलि के प्रभाव से पुरानी व्याधियाँ निरामय होती हैं और छह महीने तक नए रोग नहीं होते।
.. . (श्लोक ८२८-८३०) मोक्ष मार्ग के नायक प्रभु ने सिंहासन से उठकर उत्तरी द्वारा से बाहर आकर मध्य गढ़ के मध्य ईशान कोण में निर्मित देवछन्द पर विश्राम किया। तब सगर राजा द्वारा निर्मित सिंहासन पर बैठकर सिंहसेन नामक मुख्य गणधर ने धर्मदेशना देनी प्रारम्भ की। भगवान के स्थान के प्रभाव से उन्होंने जिसने पूछा उसको असंख्य जन्मों की कथा बतायी। प्रभु की सभा में सन्देह नाशक गगधरों को केवली व्यतिरेक छद्मस्थ व्यक्ति समझ नहीं सके । गुरु का श्रम लाघव, दोनों का परस्पर विश्वास. गुरु शिष्य का क्रम यही गुण गणधर उपदेश का वैशिष्ट्य है । द्वितीय प्रहर समाप्त होने पर मुख्य गणधर ने देशना से इस प्रकार विराम लिया जिस प्रकार पथ चलते हुए पथिक विराम लेते हैं। देशना की समाप्ति पर सभी देव प्रभु को प्रणाम कर अपने-अपने स्थानों पर जाने को रवाना हुए। राह में नन्दीश्वर द्वीप में जाकर अंजनाचलादि पर शाश्वत अर्हत् प्रतिभात्रों का पाठ दिन व्यापी महोत्सव