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किया जैसा कि कभी नहीं होता तब देवता मनुष्य तिर्यंचों ने सुखानुभव किया इसमें कहना ही क्या है ? मन्द-मन्द वायु ने भृत्य की भांति धरती की धूल को दूर करना प्रारम्भ किया। मेघ ने वितान की रचना कर सुगन्धित वारि वर्षण किया। इससे धरती उप्त बीज की भांति उच्छवसित हो गई। (श्लोक २६४-२७२)
उसी समय दिककूमारियों के प्रासन हिल उठे। भोगंकरा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, तोयधारा, विचित्रा, पुष्पमाला और अनिन्दिता ये आठों दिक कुमारियां उसी मुहूर्त में अधोलोक में भगवान् के सूतिका गृह में उत्पन्न हुई। वे आदि तीर्थंकर और तीथकर माता को प्रदक्षिणा देकर कहने लगीं-'हे जगन्माता, हे जगदीप की जन्मदात्री देवि, हम आपको प्रणाम करती हैं। हम अधोलोकवासिनी आठों दिक्कुमारियां अवधिज्ञान से तीर्थंकर का जन्म ज्ञात कर उनके प्रभाव से उनकी महिमा स्थापित करने के लिए यहां आई हैं । इससे अाप भयभीत न हों।' फिर उन्होंने ईशान कोण में जाकर एक सूतिका गह का निर्माण किया। उसका मुख पूरब की अोर था। वह एक सौ स्तम्भ पर अवस्थित था । उन्होंने संवर्त नामक वायु प्रवाहित कर सूतिकागृह के चारों ओर एक योजन पर्यन्त भूमि को कंकर एवं कर्दम से शून्य कर संवर्त वायु को निरुद्ध किया । तदुपरान्त भगवान् को नमन कर गीत गाती हुई उनके पास आकर बैठ गई।
(श्लोक २७३-२८०) __ इसी प्रकार प्रासन कम्पित होने पर भगवान् का जन्म अवगत कर मेघंकरा, मेघवती, सुमेधा, मेघमालिनी, तोयधारा, विचित्रा, वारिषेणा और वलाहिका नामक मेरुपर्वत अधिवासिनी आठ अर्द्धलोक की दिककूमारियां वहां पाकर जिनेश्वर और जिनेश्वर माता को नमस्कार कर स्तुति करने लगीं। उन्होंने उसी समय भाद्रमाससा मेघ सर्जन कर उससे सुगन्धित वारि-वर्षण किया। सूतिकागृह के चारों ओर एक योजन पर्यन्त धूल को इस प्रकार नष्ट कर दिया जैसे चन्द्रिका अन्धकार को नष्ट कर देती है। घुटनों तक पंचवर्णीय पूष्पों की वर्षा कर भूमितल को इस प्रकार सुशोभित किया जैसे अल्पना अंकित की गई हो। फिर वे तीर्थंकर भगवान् का निर्मल गुणगान करती हुई आनन्द से उत्फुल्ल होकर यथास्थान जा बैठी।
(श्लोक २८१-२८६)