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नहीं । फिर भी त्रिषष्टि-शलाका - पुरुषचरित की ओर उनका ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा कि इसमें हमारे शलाकापुरुषों का वर्तमान व प्रतीत जीवन विवृत है । उन्होंने उसका अनुवाद तुरन्त मांगा । पर वह कहाँ सम्भव था । परन्तु मैंने उस दिन निश्चित कर लिया था कि इस चरित का कुछ न कुछ अनुवाद प्रतिदिन करूँगा और वैसा ही करना प्रारम्भ किया तथा उस अनुवाद को 'श्रवरण' (बंगला मासिक ) में प्रकाशित करने लगा। उसी का हिन्दी रूपान्तर श्रीमती राजकुमारी बेगानी साथ-साथ करती गयीं जिसे कि मैं 'तित्थयर' (हिन्दी मासिक ) में प्रकाशित करने लगा ।
सौभाग्य से महोपाध्याय श्री विनयसागरजी पर्यूषण पर्व के लिए जब-जब कलकत्ता प्राते हैं तब-तब जैन भवन में ही ठहरते हैं । उन्होंने जब इस हिन्दी रूपान्तर को देखा तो कहा कि इस हिन्दी रूपान्तर में बंगला का मिठास आ गया है । कहाँ तक यह सत्य है यह तो मैं नहीं जानता; पर उनके उत्साह से इस महान् ग्रन्थ का प्रथम पर्व 'प्राकृत भारती', जयपुर से प्रकाशित हो रहा है । इसके लिए मैं उनका और 'प्राकृत भारती' का कृतज्ञ हूँ ।
मेरे अनुवाद में त्रुटियाँ रह जाना सम्भव है पर यह ग्रन्थ महोपाध्याय श्री विनयसागरजी के हाथ से सम्पादित होकर निकल रहा है इससे मैं कुछ प्राश्वस्त हूं ।
( ए )
- गणेश ललवानी