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मनुष्य उसी को सम्मान देता है जो उनका उपकार करता है ।
( श्लोक ९०४०९०७) इस प्रकार माया मिथ्यात्व के लिए ईर्ष्या कर एवं इस मन्द कर्म की आलोचना न कर उन्होंने स्त्री नाम कर्म का बन्धन किया । इन छह महर्षियों ने शतुर्दश लक्ष पूर्व तक प्रतिचारहीन असिधारा-सा संयम पालन किया। फिर उन छहों धीर मुनियों ने दो प्रकार की संलेखनापूर्वक पादोपगमन अनशन अङ्गीकार कर देह परित्याग किया |
अष्टम भव
वे छहों ही स्वार्थसिद्धि नामक पंचम अनुत्तर विमान में तैंतीस सागरोपम की श्रायु वाले देव बने । ( श्लोक ९०८-९११)
( प्रथम सर्ग समाप्त )
द्वितीय सर्ग
इसी जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में शत्रु के द्वारा जो कभी विजित नहीं हुआ ऐसा अपराजित नामक एक नगर था । उस नगर में ईशानचन्द्र नामक एक राजा राज्य करता था । उसने अपने वाहुबल से जगत् को पराजित कर दिया था । अपने विशाल ऐश्वर्य के कारण वे ईशानेन्द्र से प्रतीत होते थे । ( श्लोक १-२ ) उस नगर में चन्दनदास नामक एक श्रेष्ठी रहते थे । वे बहुत धनाढ्य थे । वे धर्मात्मायों में अग्रणी और पृथ्वी को सुखी बनाने में चन्दन की भाँति थे ।
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उनके सागरचन्द्र नामक एक पुत्र था । उन्हें देखकर सभी प्रसन्न हो उठते । समुद्र जिस प्रकार चन्द्रमा को आनन्दित करता है वैसे ही वह अपने पिता को ग्रानन्दित करता था । स्वभाव से वह सरल, धार्मिक और विवेकी था इसलिए वह समस्त नगरी में तिलक स्वरूप था । ( श्लोक ३-५ )
एक दिन सागरचन्द्र राजसभा में गया । वहाँ राजा सिंहासन पर बैठे हुए थे। उनकी सेवा में उपस्थित सामन्त भी यथास्थान बैठे थे । राजा ने सागरचन्द्र को भी उसके पिता की ही भांति
सत्कार
और स्नेह प्रदर्शित कर
( श्लोक ६-७ )
आसन, ताम्बूल आदि देकर सम्मानित किया।