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अवशेष तेरह रत्न भी प्राप्त हुए। कहा ही गया है -कमलिनी जैसे जलानुरूप ऊँची होती है सम्पत्ति भी पुण्य के अनुसार ही मिलती है। सुगन्ध से आकृष्ट होकर जैसे भ्रमरगण आते हैं उसी प्रकार प्रबल पुण्य से प्राकृष्ट होकर नवनिधि पाकर उनके गृह में सेवा करने लगी।
(श्लोक ८१०-८१२) फिर उन्होंने समस्त पूष्कलावती विजय को जय कर लिया। इससे वहाँ के समस्त राज्यगणों ने उन्हें चक्रवर्ती पद पर अभिषिक्त किया। भोगोपभोग उपभोगकारी राजा की धर्म बुद्धि भी इस प्रकार अधिकाधिक बढ़ने लगी जैसे वह बढ़ती हुई आयु की प्रतिस्पर्धा करती हो। अधिक जल में जैसे लता वद्धित होती है उसी प्रकार संसार वैराग्य की सम्पत्ति से उनकी धर्म बुद्धि भी बढ़ने लगी।
(श्लोक ८१३-८१५) एक बार साक्षात् मोक्षरूप प्रानन्द उत्पन्नकारी भगवान् वज्रसेन प्रव्रजन करते हुए वहाँ उपस्थित हुए । समवसरण में चैत्य वृक्ष के नीचे बैठकर उन्होंने कानों के लिए अमृत तुल्य धर्मदेशना देनी प्रारम्भ कर दी। उनके आगमन का संवाद पाकर सम्राट वज्रनाभ राजहंस की भाँति बन्धु-बान्धवों सहित समवसरण में पहुँचे और सानन्द तीन प्रदक्षिणा देकर उनके चरणों की वन्दना कर इन्द्र के पीछे अनुज भ्राता की भाँति बैठ गए। फिर भव्य जीवों के मनरूपी सीप में बोधरूपी मुक्ता उत्पन्न करने वाली स्वाति नक्षत्र की वृष्टि के समान उनकी देशना श्रावकगण सुनने लगे। मृग जैसे गीत-ध्वनि सुनकर उत्सुक होता है वे भी उसी प्रकार उनकी सुमधुर वाणी सुनकर सोचने लगे-यह संसार अपार समुद्र की भाँति दुस्तर है। इसे उत्तीर्ण कर मेरे पिता त्रिलोकनाथ बन गए हैं । पुरुष को अन्धकार की भाँति जो अन्ध करता है उस मोह को सूर्य की भाँति जिन्होंने सभी प्रकार से भेदा है वे यही जिनेश्वर हैं। चिरकाल संचित ये कर्म समूह महाभयंकर असाध्य रोग की भाँति है । इसके चिकित्सक मेरे पिता ही हैं। अधिक और क्या कहने को है ? करुणा रूप अमृत सागर तुल्य ये ही दुःख नाशकारी और अद्वितीय सुख उत्पन्न करने वाले हैं। इस प्रकार के जिनेश्वर देव के रहते हुए भी मैं मोह के द्वारा प्रमादी होकर लोक में जो भी प्रधान है उस स्व. प्रात्मा को धर्म से बहुत दिनों से वंचित रखा है।
(श्लोक ८१६-८२६)