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५४] उस धुएं ने राजा-रानी की नाक में प्रवेश किया । अतः उसी भव में उसी स्थान पर उनका देहान्त हो गया। (श्लोक ७१३-७१५)
पंचम भव वनजंघ और श्रीमती का जीव उत्तर कुरुक्षेत्र में युगल रूप में उत्पन्न हुए। ठीक ही कहा गया है-'समान विचार वाले मृत्यु-पथ यात्रियों की गति एक-सी होती है।
__(श्लोक ७१६)
षष्ठ भव वहाँ से आयु शेष होने पर उन्होंने सौधर्म देवलोक में स्नेहशील देवता के रूप में जन्म ग्रहण किया और वहाँ दीर्घकाल तक स्वर्गसुख का भोग किया।
(श्लोक ७१७) देव आयु समाप्त होने पर उष्णता पाकर जिस प्रकार हिम पिघल जाता है उसी प्रकार विगलित होकर वज़जंघ का जीव वहाँ से चलकर जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र में क्षिति प्रतिष्ठित नगर के सुविधि वैद्य के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उनका नाम जीवानन्द रखा गया। उसी दिन उसी नगर में धर्म के शरीरधारी चार अंग की भाँति अन्य चार बालक उत्पन्न हुए। पहला ईशानचन्द्र राजा के घर कनकवती नामक रानी के गर्भ से महीधर नामक पुत्र हुआ। दूसरा सुनासीर मंत्री के घर लक्ष्मी नामक स्त्री के गर्भ से सुबुद्धि नामक पुत्र हुआ। तृतीय सागरदत्त श्रेष्ठी के घर अभयमती स्त्री के गर्भ से पूर्णभद्र नामक पुत्र हुआ। चतुर्थ धनश्रेष्ठी के घर शीलमती स्त्री के गर्भ से शीलपुञ्ज की भाँति गुणाकर नामक पुत्र हुआ। धात्रियों के द्वारा सयत्न परिपालित और रक्षित होकर ये चारों पुत्र अंग के चार प्रत्यंग की भांति समान रूप से बढ़ने लगे। वे सदा एक साथ खेलते । वक्ष जैसे मेघवारि को समान रूप से ग्रहण करता है उसी प्रकार समान रूप से उन्होंने समस्त कलाए अधिगत कर लीं।
(श्लोक ७१८-७२६) श्रीमती का जीव भी देवलोक से च्युत होकर उसी नगर के ईश्वरदत्त श्रेष्ठी के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम केशव रखा गया । पाँच इन्द्रिय और छठे मन की भाँति वे छहों मित्र समस्त दिन प्रायः एक साथ ही रहते। (श्लोक ७२७-७२८)